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हरि ॐ। यह ब्लाग हमें सदगुरु श्री अनिरुद्ध बापू (डा. अनिरुद्ध जोशी) के बारें में हिंदी में जानकारी प्रदान करता है।

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आर्थिक दहशतवाद

हरि ॐ

आर्थिक दहशतवाद

झूठे धन से क्या तात्पर्य है ? सच्चा पैसा भविष्य में नहीं रहने वाला है, यह भीषण वास्तविकंता कितने लोंगों को पता है ? मुद्रा के मूल अस्तित्व के बारे में प्रश्न
डाँ. अनिरुध्द जोशी

ये रे ये रे पावसा
तुला देतो पैसा
पैसा झाला खोटा
पाऊस आला मोठा ।

यह गाना बचपन में हर एक बच्चा प्रेमपूर्वक गाता रहता है । परंन्तु इस गाने का एक समीकरण समझ में नही आता कि खोटे ( झुठे ) पैसों के चक्कर में पडकर बरसात क्यों जोरदार प्रतिसाद देती हैं इतना ही नही बल्कि धीरे-धीरे मन में यह प्रश्न उठने लगता है कि आखिर खोटे पैसे का वास्तव में क्या तात्पर्य है ? परंन्तु यह उलटा समीकरण वर्तमान में संपूर्ण संसार को आर्थिक स्थिती का प्रमुख गणितीय सूत्र बन चुका है । इसका अहसास विगत तीन दशकों से, अनेक तरीकों से, समाज शास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों को  होने लगा है । खोटा पैसा ही सच्चा और सच्चा पैसा भविष्य में रहेगा ही नही, यह भीषण वास्तविकता आज हममें से कितने लोंगों को पता है । यहाँ पर मै काला पैसा, या सफेद पैसा की बात नहीं करना चाहता हूँ । मेरे मन जो विचार चल रहा है वो उस मुद्रा के मूल अस्तित्व के बारे मे है । वैश्वीकरण के युग में मानो पूरा संसार ही एक छोटे से गाँव में सिमट कर रह गया है । और ऎसे समय में गरीब व असहाय राष्ट्र क्या अपना स्वतंत्र अस्तित्व रख सकेंगे ? क्या कम से कम आधे राष्ट्र भी शेब बच सकेंगें क्या, यह एक गहन प्रश्न बन गया है । यद्यापि इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है फिर भी इसे नजरंदाज करना हमें सुविधाजनक लगता है । यह सबसे दुर्भाग्य एवं भविष्य के लिये विनाशकारी बात है ।
वीसंवी शताब्दी के पहले ५० वर्षो में हुये दो महायुध्दो के कारण तथा शीघ्रता से होने वाले वैज्ञानिक विकास के फलस्वरुप संपूर्ण पृथ्वी का नक्सा ही बदल गया है । दूसरे महायुध्द के अपरिहार्य परिणाम के फलस्वरुप इग्लैंड और जर्मनी की आर्थिक व वसाहतवादी सत्ता क्षीण हो गयी । अमेरिका व रशिया ये दोनों महाशक्तियां अधिकाधिक बलवान होने लगी । दूसरे अर्धशतक मे सोव्हियत पुनियन में साम्यवादी क्रांती धीरे-धीरे विकृत होती-होती सिर्फ नाम भर के शेष रह गयी है । तथा रशिया के घटक राष्ट्रों का विभाजन हो जाने से रशिया का वर्चश्व ही समाप्त हो गया । इतना ही नही ब्लकि रशिया के घटक राष्ट्रों मे तथा चीन में भी वर्तमान समय में भांडवल शाही का पुर्नजीवन हो रहा है । इन्हीं सब कारणों के चलते आज अमेरिका, संसार में एक बलशाली भांडवलशाही राष्ट्र के रुप में, संपूर्ण संसार का बेबंद राजा बन गया है । महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी युध्द अमेरिका ने अपनी भूमी पर नही लडने के की कुशलता दिखाने के कारण महायुध्दों के संहरक परिणाम व नुकसान अमेरिका को नही भोगने पडे ।
शस्त्रो का व्यापार व आर्थिक दावपेंचों के कारण अमेरिका अधिकाधिक बलवान होता जा रहा है ।अमेरिका के आर्थिक वसाहतवाद के पाँच प्रमुख उद्देश्य है--
१.    अपना कोई भी प्रतिस्पर्धी उत्पन्न न होने देना - इसके लिये युरोप, जपान, ब्राझील और भारत जैसे राष्ट्रों को अपने आर्थिक नियंत्रण मे रखना अथवा परस्पर युध्द की धमकियों ( भारत-पाकिस्तान ) से ग्रासित रखने की तरकीब करना ।
२     भारत व चीन का रशिया की तर्ज पर विभाजन करने की चाल चलना ।
३     संयुक्त राष्ट्र संघटना ( UNO ) का उपयोग अपनी मनमानी को कायदेशीर साबित करने के लिये करना ।
४     तेल उप्तादक राष्ट्रों को अपने नियंत्रण में रखकर स्वत: के ओद्योगिक हितो को सुरक्षित रखना ।
५     ईराक पर लगायी गयी व्यापारिक बंदी के कारण ईराकी नागरिकों को नानाप्रकार के कष्ट भोगने पडे । मूलरुप से समृध्द यह देश १९९० के बाद दरिद्री होने लगा । ईराक का प्रतिव्यक्ति वार्षिक उत्पन्न ३५०० डालर्स था जो घटकर सन्‌ २००० में मात्र ४०० डालर रह गया था ।

अन्न की कमी को मिटाकर भूख मरी को टालने के लिये बारम्बार याचना करने के बाद १९९६ में अपने पास पेट्रोल को कम भाव में बेचकर उसके बदले में खाद्यपदार्थ व धान्य प्राप्त करने छूट ईराक को दी गयी । U ICEF (United Nations children's Fund ) के अंदाज के अनुसार युध्द प्रारम्भ होने के पहले ही पाँच लाख ईराकी नागरिक क्षेपणास्त्रे तथा अन्न धान्यों की कमी के कारण मर चुके थे । जिनमें से तीनलाख पाँच वर्ष से कम आयु वाले बच्चे थे । सक्षम क्रूर तो होते ही है, परन्तु अमेरिका का क्रौर्य भी कम से कम उतना ही भयानक है, ब्लकि उससे ज्यादा भयानक है ।

लडाई हमेशा दो राष्ट्रों अथवा राष्ट्र समूहों के बीच होती है । परंतु अमेरिका ने दूसरे विश्वयुध्द के बाद सब जगह वैज्ञानिक प्रगति के कारण होने वाले वैश्वीकरण को जिसतरह अपने फायदे के लिये लागू किया उसके अनुसार किसी भी राष्ट्र का स्वतंत्र आर्थिक व सांस्कृतिक अस्तित्व ही शेष न रहने देना ही अमेरिका का महत्वपूर्ण उद्देश्य है ।
वर्तमान में अमेरिका का आर्थिक साम्राज्य प्रत्येक राष्ट्र में फैल चुका है । भूतकाल की वसाहतवाद की तुलना में अमेरिका का यह नया आर्थिक साम्राज्यवाद प्रत्येक मानवी अस्मिता को क्षीण करने ही वाला है । ध्यान में रहे कि, अमेरिका में ही आंतरराष्ट्रीय नाणे निधी, संयुक्त राष्ट्र संघटना, विश्व बँक और वैश्विक व्यापार संघटना के मुख्य कार्यालय है । अमेरिका का शेअर बाजार आज अनेक देशों के बाजारों पर अपना वर्चस्व बनाये हुये है । दूसरे महायुध्द के पहले सारे वित्तीय व्यवहार उस देश तक ही सीमित रहते थे और अन्तरदेशीय व्यापार तथा बहुउद्देशीय बाजारों को एक सीमित सहकार्य की ही संकल्पना हुआ करती थी । परंन्तु वर्तमान मे सभी देशों के आर्थिक प्रावाह का नियंत्रण मानों एक ही जगह पर केन्द्रित हो चुका है । साधारणत: १९६५ से Trans National अर्थात राष्ट्रातीत कंपनियां अधिकाधिक संख्या में आगे आने लगी है । ऎसे राष्ट्रातीत कंपनियो को स्वीकारना विकासशील व गरीब राष्ट्रो की मजबूरी हो जाती है । क्योंकि ऎसा न करने पर उनके उद्योंगों को आर्थिक सहायता कौन देगा ? इन कंपनियों के पास अकूल संपत्ती होने के कारण वे किसी भी क्षेत्र में व्यवस्थित चल रहे उद्योगो को बुरीहालत में लाकर उन्हें खरीद सकती है अथवा किसी भी नये क्षेत्र में नया उद्योग शुरु कर सकती है और इसके फल स्वरुप तेजी से आर्थिक केन्द्रीकरण हो सकता है ।
अर्थोप्तत्ती का नया समीकरण- विगत पाँच दशकों में अमेरिका द्वारा लाये गये वैश्विक अर्थ व्यवहार में बदलाव के कारण ७० टक्के देश लगातार बढ रहे और कभी भी न  भर पाने वाले राष्ट्रीय कर्ज में डूब चुके है । सन्‌ १९७० मे अमेरिका ने अधिकृत तरीके से अपनी राष्ट्रीय मुद्रा व्यवस्था में बदलाव किया और U.S. फेडाल बँक ने राष्ट्रीय मुद्रा और सोना का परस्पर संबंध हमेशा के लिये समाप्त कर दिया । फलस्वरुप अमेरिकी मुद्रा का उप्तादन "बँक के कर्ज " के नयी विषारी प्रक्रिया के अनुसार होने लगा । यह नया विष अमेरिका के साथ व्यापारिक संबध रखने वाले सभी देशों की मुद्राओं को कमजोर करने लगा और इसीलिये उन्हे भी अपनी-अपनी मुद्राओं में, अमेरिका के नियमों से मिलते जुलते बदलाव करने पडे ।

फलस्वरुप अब अर्थ का तात्पर्य राष्ट्रीय संपत्ति नही ब्लकि अर्थ का तात्पर्य कर्ज का समीकरण दृढ हो चुका है । वर्तमान मे जब कोई राष्ट्र स्वत: की आर्थिक व्यवस्था का वैश्विकरण करना चाहता है ( स्वत: की औद्योगिक प्रगती के लिये ) तब जो-जो मुद्रा नये तरीके से आती है, वो सब सिर्फ बँक के कर्ज के रुप में ही मिलती है । एक बार इस अर्थव्यवस्था को स्वीकार कर लिया तो सोने की खानें, औद्योगिक उप्तादन और राष्ट्रीय मेहनत इत्यादि अर्थोत्पादन के साधन बिल्कुल रह ही नही जाते । इतना ही नही ब्लकि ग्राहको द्वारा बँका में जमा की गयी राशि भी अर्थोत्पादन का साधन नही रह जाती । कामगारों की मेहनत और उप्तादन क्षमता सिर्फ बँको द्वारा " निर्माण " किये गये भांडवल ( निधी ) का पुर्नवितरण करती है । जब बँक कर्ज मंजूर करके कर्ज लेने वाले व्यक्ति के खाते में यह रकम कागजीस्वरुप मे जमा करती है तभी वास्तव में मुद्रा उत्पन्न होती है और ठीक से समझ लो कि सिर्फ शून्य से और शून्य से ही इस नवीन मुद्रा की निर्मिती होती है । इसका क्या अर्थ है- कर्ज मंजूर होने से पहले यह अमुक रकम अस्तित्व में ही नही थी । परन्तु जब यह कर्ज ली गयी रकम खर्च की जाती है तभी मुद्रा का खेल शुरु होता है, ऎसा माना जाता है ।
अब सवाल है कर्ज वापस करने का । यह कर्ज जब उत्पादन क्षमता की मूल्य से लौटाया जाता है तब इस कर्ज द्वारा निर्मित येन व डालर्स का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है । वास्तव में कर्ज लौटाने के लिये उपयोग में लायी गयी रकम बँक मे रहती ही नही है । सच्चाई तो यह है कि यह कही भी नही रहती है और चलन मे तो कतई ही नही रहती । ऎसा कर्ज चुकाने के लिये उपयोग मे लायी रकम व्यवहार मे चल रही मुद्रा को उस रकम के मूल्य के बराबर कम कर देती है । अर्थात जब सुस्थती रहती है तब लोग अपना ॠण चुकाते है और उतनी ही यात्रा में चलन में रहने वाले पैसे को कम कर देते है । ऎसी परिस्थिती में सहजता से ही आर्थिक घाटा निर्माण होता है और उसी की तुलना में सभी का हिस्सा भी बन जाता है । और इसमे ही अगले प्रश्नों का उत्तर निश्चित है-
१     कामगारों की संख्या लगातार कम क्यो करनी पड रही है ?
२     मेहनत की तुलना में मजदुरी की मात्रा हमेशा कम होती है ?

वर्तमान आर्थिक व्यवस्था में मुद्रा की भरपाई करने के लिये सिर्फ एक ही उपाय शेष बचता है -- " कर्ज "। इसके कारण विकासशील देशों को ऋणमुक्त होने के लिये बारम्बार कर्ज लेना पडता है । लगातार बढ रहे व्याज के कारण आवश्यक मात्रा मे मुद्रा व्यवहार में नही सकती और जब कर्ज चुकाया जाता है तब अस्थायी रुप से निर्माण हुयी रकम आर्थिक व्यवस्था से निकल जाती है । परन्तु उसपर लगाये गये व्याज की रकम की भरपाई ने होने के कारण एक बडी समस्या खडी हो जाती है । व्याज की यह रकम भरने के लिये वारम्बार कर्ज का चक्र शुरु ही रहता है । इसका मतलब यह है कि वर्तमान मे अर्थव्यवस्था " अपर्याप्त मुद्रा " पर चल रही है । इसी के कारण डालर को पकडने की जीवघातक दौड शुरु है । जो जितना ज्यादा स्वार्थी, अप्रामाणिक और क्रूर होता है वही जीतता है, बाकी को यहाँ कोई स्थान नही मिलता । फलस्वरुप ग्राहकों की सुविधा, कीमत और माल की गुणवत्ता की अपेक्षा कंपनियां बाजार पर अपना कब्जा जमाने के लिये अनैतिक मार्गो पर जादा खर्च करती है । विकसित देशो की बाजारों की आवश्यकतानुसार ही ( स्वत: के पक्के माल की विक्री के लिये ) गरीब व विकासशील देशों की प्रगती होने दी जाती है । विकासशील व गरीब राष्ट्रों को सहायता करने के नाम पर सतत उनका शोषण करना ही अमेरिका का धोरण है ।

सन १९७१ से शुरु की गयी अमेरिका की इस नयी अर्थव्यवस्था का नाम है " डेब्ट डालर्स "। इस नयी अर्थव्यवस्था के परिणाम स्वरुप राष्ट्रीय मालिकत के उद्योगों का दिवाला आसानी से पिट रहा है । सभी देशों की  राष्ट्रातीत कंपनियां काफी बडी तादाद मे विकासशील देशों मे अपना जाल फैला रही है और अपनी मालिकियता बना रही है । उसके लिये अपनी कीमतों को अवास्तविक रीती से कम करके देशी कंपनियों को घाटे मे लाती है और बाद मे एकबार अधिकार जमा लेते ही वही कीमतें उतनी ही अवास्तविक तरीके से बढा देती है । धीरे-धीरे सभी प्रकार की बाजारे इन कंपनियों के हाथो मे तथा इन कंपनियों की डोर अमेरिका की अर्थव्यवस्था के हाथो में तथा अमेरिका की सरकार यानी अमेरिका की दुकान को कुछ भी करके फायदा पहुँचाने वाला एजंट - ऎसी परिस्थिती में किसी भी देश की राज्यसंस्था उनके देश की मक्तेदार कंपनियों के सामने लाचार हो जाती है । अर्थात राजकीय संस्था अब स्वतंत्र नही रह जाती । क्या वे अंतत: अमेरिका के रिमोट कंट्रोल के नीचे ही दबने वाले है ?

वर्तमान में भारत ने परदेशी भांडवल और औद्योगिक र्स्पधा का ठीक से मुकाबला करने वाले नियम न बनाने के कारण ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी मालकियत उत्पन्न करके अंतत: राष्ट्र के रुप मे भारत के हिस्से मे ज्यादा कुछ नही आने देगी । इसका स्पष्ट अहसास हमे होना चाहिये । सन्‌ १९८३ के बाद संघटित क्षेत्रों मे प्रतिव्यक्ति उप्तन्न की तुलना मे असंघटित क्षेत्रों मे प्रतिव्यक्ति आय कम हो रही है । साथ ही साथ इसी दौरान ग्रामीण क्षेत्रों के व्यक्तियों की प्रतिव्यक्ति उत्पन्न शहरी क्षेत्रो मे प्रति व्यक्ति आय की तुलना में ज्यादा से ज्यादा कम होती जा रही है ।
वैश्विककरण के कारण सभी राष्ट्रों का आर्थिक विकास होगा व फलस्वरुप इन देशों का सर्वागीण विकास होगा, ऎसे उदात्त विचार हमेशा व्यक्त किये जाते थे । परन्तु वास्तव में वैसा होते हुये कही भी दिखायी नही दे रहा है । वास्तव में तो वैश्वीकरण के कारण संसार की मानवसंपत्ती व प्राकृतिक संपत्ती का प्रचंड नुकसान ही हो रहा है । तर्कसंगत रुप से मुनाफे के पीछे भागते हुये सभी देशों के पर्यावरण का बडी तेजी से नुकसान हो रहा है । ओजोन वायु का रिसाव, जंगलों का काटना, अनेको प्रजातियों का नाश, अनेक प्रकार की बँक्टीरिया तथा व्हायरसेस में जिनेटिक बदल, तापमान में बदल आदि के कारण ऎसा लगता है कि अगले १०० वर्षो में विश्व की लोकसंख्या सचमुच एक गाव के बराबर रह जायेगी ।

इस वैश्वीकरण व अमेरिका की आर्थिक साम्राज्यशाही के धोरण के चलते अबतक विभिन्न सामाजिक रीतियों के कारण लोंगों द्वारा प्राप्त किये हुये राजकीय, सामाजिक और आर्थिक अधिकार नष्ट होने लगे है ।
आर्थिक साम्राज्य के इस धोरण ( सिध्दांत ) के कारण जो सबसे बडा परिणाम हुआ है ( भारत के साथ सभी देशोंपर ) वो है, कामागारों की अवनति । एक समय भारत में अत्यंत सुंदर तरीके से चलने वाले कामगार आंदोलनों को कुछ समय से लिये विघातक रुप प्राप्त हुआ था, यह सत्य है, परन्तु उसके बाद १९८० के बाद से सभी प्रकार की कामगार संघटनायें बलहीन हो गयी किंबहुना बलहीन की गयी, ऎसा विदारक दृश्य स्पष्ट रुप से दिखायी दे रहा है । लोकशाही राष्ट्रपध्दति तथा लोकशाही समाज रचना, राष्ट्र की सच्ची संर्वागीण प्रगती के लिये आवश्यक होती है, परन्तु वास्तविक व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बिना लोकशाही अविकृत नही रह सकती, यह अंतिम सत्य है ।
स्वत: के सामाजिक व राष्ट्रीय अधिकार का यथोचित ज्ञान रखने वाला सामान्य व्यक्ति तैयार करना तथा उसे उसे सामाजिक व राष्ट्रीय कर्तव्यों का भान रखने के बारे मे सिखाना ही आज की ज्वलंत आवश्यकता है । क्योंकि अमेरिका का साम्राज्यवाद आज प्रत्येक देश की संस्कृति को भी जीतते जा रहा है और तब अब वो दिन दूर नही जब सभी देशों की संस्कृती का बडी मात्रा में अमेरिकीकरण हो चुका होगा । यह बात अच्छीतरह से समझ लेनी चाहिये कि आर्थिक प्रगति करते समय मानवी मूल्यों का विचार बाजू मे रखकर होने वाली उन्नति विनाशकारी ही होती है ।
सन्‌ २००० अप्रैल में हुयी हॅवान परिषद में एक ऎतिहासिक घटना हुयी । स्वयं अमेरिका सहित अनेक देशों में वैश्वीकरण का विरोध सुरु हो गया है । परन्तु जबतक हम सामान्य लोग इस समस्या को ठीक से नही समझेंगे तब तक यह संकट पूरी पृथ्वी के विनाश की तैयारी करते ही रहेगा ।

पैसों की बरसात
धन धना धन इन्फोटेनमेंट प्रां. लि. ने नयी धन धना धन ऑनलाईन लॉटरी की शुरुवात की है । इसमें धन धना धन  द्वारा ट्राई धन का खेल तीन लकी नंबरों पर आधारीत है । ई टी व्ही की सभी वाहिनियों पर ( मराठी, बंगाली और कन्नड ) तथा एशियानेट वाहिनी पर इस ऑनलाइन लाटरी का प्रक्षेपण किया गया है । लाटरी टर्मिनल टेक्नोस्ट सिस्टम कंपनी से लिये गये है । इसमें ब्रॅडमा कन्झ्युमेबल और लॉलिस्टिक भागीदार है । साथ ही साथ प्रत्येक खेल में पॉच हजार रुपयों तक की इनाम राशि ग्राहकों को तुंरत दी जाती है ।





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