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हरि ॐ। यह ब्लाग हमें सदगुरु श्री अनिरुद्ध बापू (डा. अनिरुद्ध जोशी) के बारें में हिंदी में जानकारी प्रदान करता है।

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डॉक्टर अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी, एमडी (मेडिसीन) (Dr. Aniruddha Dhairyadhar Joshi,MD (Medicine))

डॉक्टर अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी, एमडी (मेडिसीन)
Dr. Shirish Datar
Dr. Shirish Datar



लेखक:  डॉ. शिरीष दातार


* परिचय *
१९७८ में नायर मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस, 
१९८२ में नायर मेडिकल कॉलेज से एमडी(पेडिएट्रिशियन), 
१९८३ से जनरल प्रॅक्टिस.
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रुईया से नायर हॉस्पिटल, टोपीवाला मेडिकल कॉलेज - मेरा क्लासमेट, मेरा घनिष्ठ मित्र, मेरा सखा और आज अनिरुद्ध बापू, मेरे सदगुरु - मेरा भगवान।

मैंने मेरे इस चहिते मित्र की मित्रता और चहिते भगवान की भगवंतता दोनों बातों को भरपूर अनुभव किया है। आज मैं आपको इसकी मित्रता के किस्से बताऊंगा और इनमें ही उसकी छिपी हुई भगवंतता दिखाई देगी।

सन १९७३ के जून महीने में मैं इंटर सायन्स की पढाई के लिए रुईया कॉलेज में दाखिल हुआ। कॉलेज का पहला साल मैंने ठाणा कॉलेज (बेडेकर कॉलेज) से पास किया। बापू कॉलेज के पहले साल से ही रुईया में थे। मैं कॉलेज में नया था। कॉलेज का आय कार्ड मिला और मैं ग्रंथालय में गया। तब हमें आय कार्ड पर एक किताब घर ले जाने के लिए मिला करता था। इसीलिए मैं ग्रंथालय में गया था, क्योंकि मेरी आर्थिक स्थिति के अनुसार सभी टेक्स्टबुक्स खरीदना संभव नहीं था। ग्रंथालय के काऊंटर पर भीड थी। मैं वहीं पास में जाकर खडा हो गया। थोडे ही अंतर पर एक टबल था और उस टेबल के पास बापू बैठे हुए थे। तब वे मेरे लिए अपरिचित थे। मैंने जब उस लडके की ओर देखा तो पता चला कि वह मुझे इशारे से अपने पास बुला रहा है। चेहरा देखा तो ध्यान में आया कि यह लडका लेकचर्स के दौरान मेरे ही क्लास में था, अर्थात यह मेरा क्लासमेट है, इतना परिचय हुआ। फिर भी मन में डर सा था कि मैं इस कॉलेज में नया हूं और यह यहां पर पिछले एक साल से है; कहीं रैगिंग का इरादा तो नहीं? पर साहस कर मैं उसके टेबल तक गया। उसने मुझे शांति से गंभीर आवाज में पासवाली कुर्सी पर बैठने को कहा। वह स्वर ही आश्वासक था। मेरा डर निकल गया और तनाव रहित कुर्सी पर पैठ गया। हम पहली बार एक-दूसरे से बातें कर रहे थे। मगर वह मेरे बारे में सबकुछ ’जानता’ था। "तुम शिरीष दातार। डोंबिवली से आते हो, बराबर?" यही था उसका पहला वाक्य। फिर उसने अपना परिचय दिया। "मैं अनिरुद्ध धैर्यधर जोशा। शिवडी में रहता हूं। मेरे पिताजी डॉ. धैर्यधर हरिहरेश्वर जोशी। परेल विलेज में उनका क्लीनिक है।" नाम सुनकर ही मैं सकपकाया। इतने में उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, "आयकार्ड पर किताब लेनेवाले हो ना? मैं इसका कारण जानता हूं। मेरे पास सभी किताबें हैं। मुझे लायब्ररी से किताब ले जाने की जरुरत नहीं है। अगर तुम और भी एक किताब ले जाना चाहो तो मेरे आयकार्ड पर ले जाओ।" मैं अचम्भित हो गया कि मेरे इस क्लासमेट से अभी अभी परिचय हुआ (मेरे अनुसार) और यह खुद अपनी ओर से मेरी इतनी सहायता कर रहा है। किसी को विश्वास होगा? मगर यह घटना १०८% सच है। यह अनिरुद्ध, यह बापू ऐसा ही है।

Aniruddha Bapu
Aniruddha Bapu
मई १९८३ में बापू और मैं, हम दोनों ने एम.डी. का अभ्यासक्रम पूरा किया। मैं नायर हॉस्पिटल में रजिस्ट्रार की पोस्ट पर था। बापू उन्हीं दिनों (मई १९८३) पोस्टिंग पूरी करके परेल में निजी प्रैक्टिस करने लगे थे। रविवार का दिन था। सुबह ११ बजे डोंबिवली से मेरे चाचा का फोन आया। उन दिनों डोंबिवली से ट्रंककॉल लगाना पडता था। मेरे पिताजी डोंबिवली में रहते थे, वृद्ध थे, तकरीबन ७५ साल के। पिछली रात को उनकी तबियत बिगड जाने के कारण उन्हें ठाकुर हॉस्पिटल में ऐडमिट कराया गया था। मैं तुरंत नायर हॉस्पिटल से रवाना हुआ। निकलने से पहले बापू के घर पर फोन करके बताया कि मैं डोंबिवली जा रहा हूं, और जाने का कारण भी बताया।

मैं डोंबिवली पहुंचा। हॉस्पिटल पहुंचकर पता चला कि पिताजी की तबियत अधिक बिगड जाने की वजह से उन्हें डॉक्टर ने मुम्बई ले जाने को कहा है औरे मेरे चाचा उन्हें लेकर नायर हॉस्पिटल ही गए हैं। मैं तुरंत वहां से लौट पडा। बहुत टेंशन था। अनिरुद्ध (बापू) को संदेश देना संभव नहीं था। मैं घंटे-डेड घंटे में नायर पहुंचा। हॉस्पिटल के अहाते में पहुंचते ही मुझे पता चला कि पिताजी को आय.सी.यू. में ऐडमिट किया गया है। मैं धीरज खो बैठा। मैं लिफ्ट से हॉस्पिटल की छठी मंजिल पर पहुंचा क्योंकि वहीं आय.सी.यू. था। मैं आय.सी.यू. की दिशा में दौड रहा था कि इतने में आय.सी.यू. का दरवाजा खुला और खुद बापू और डॉ. श्रीरंग गोखले बाहर निकले। बापू मेरे कंधे पकडकर बोले, "शिरिष, पिताजी की तबियत बहुत खराब थी, पर अब ट्रीटमेंट के बाद फरक पडा है। ही इज आऊट ऑफ डेंजर।"

यह सुनकर मैं खुद को रोक न सका और रोने लगा। मुझे शांत करके बापू मुझे आय.सी.यू. में ले गए। पिताजी से मिलकर मैं बाहर आ गया। बापू और डॉ. श्रीरंग अंदर ही थे। बाहर बापू का ड्राईवर खडा था। मुझे देखते ही आगे बढकर बोला, "साहब, आप अपने दोस्त जरा समझाईए।" मैंने पूछा "क्यों?" तब वो बोला, "डॉक्टर साहब ने कितनी रफ्तार से गाडी चलाई है? मैं उनके बगल में जान मुठ्ठी में लिए बैठा हुआ था। मैंने आज तक ऐसी ड्राईविंग नहीं देखी। शिवडी से नायर तक केवल ७-८ मिनटों में लाया आपके दोस्त ने।" मैं अचरज में पड गया। "हां समझाऊंगा" कहकर उसे संतुष्ट किया। इतने में बापू बाहर निकले। "पिताजी की तबीयत अब ठीक है, श्रीरंग संभाल लेगा। अब मैं घर जा रहा हूं।" ऐसा कहकर बापू चले गए। फिर डॉ. श्रीरंग ने सारी बात बताई। जब पिताजी को आय.सी.यू. में लाया गया तब वो ड्यूटी पर था। यह पेशंट मेरे पिताजी हैं और मैं हॉस्पिटल में नहीं हूं इस बात का पता चलते ही उसने बापू के घर पर फोन करके यह बात बताई। उस वक्त बापू घर पर ही थे। फोन रखने के बाद दसवें मिनट में बापू आय.सी.यू. में थे। मित्र एक मित्र के लिए दौडा। बापू की मित्रता रेखांकित हो गई। मगर बात यहीं खत्म नहीं होती। बापू की ट्रीटमेंट की वजह से मेरे पिताजी की जान बची। दो दिनों बाद मैं पिताजी को घर ले जा सका। मेरे पिताजी की तबीयत में सुधार देखकर डोंबिवली के डॉक्टर ठाकुर भी अचरज में पड गए। एक डॉक्टर के तौर पर बापू कैसे हैं यह भी रेखांकित हो गया।

६ सितम्बर १९८४, हमारी शादी का दिन। हम ने रजिस्टर्ड विवाह करने का निर्णय लिया था। इसके अनुसार एक महीना पहले नोटिस दी गई थी। ठाणे से रजिस्ट्रार खुद नेरल आनेवाले थे। हम ५ तारीक को उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा कि वे नहीं आ पाएंगे। अब क्या करें? यह सवाल खडा हो गया। हम अपने घर कर्जत पहुंचे। अनिरुद्ध (बापू) हम से पहले ही हमारे घर पहुंच चुका था। सारी बात सुन लेने पर वह बोला, "कोई चिन्ता मत करो।" मेरे ससुरजी ने भागदौड करके शादी वैदिक तरीके से कराने हेतु पंडितजी से बातचीत तय कर आए। ६ तारीक को हम सब शादी के लिए नेरल पहुंचे। बापू भी हमारे साथ थे ही। महुरत का समय नजदीक था पर पंडितजी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। ससुरजी ने फोन किया तो पता चला कि वे बीमार हैं और आ नहीं पाएंगे। सभी दुविधा में पड गए कि अब क्या करें? सभी रिश्तेदार आ चुके थे, पर अब विधी कैसे की जाए? बापू मेरे पास आकर बोले, "अरे शिरीष, चिन्ता क्यों करते हो? जोशी गुरुजी हैं ना! मैं सब विधियां, मंत्र जानता हूं।" बापू जोशी गुरुजी बन गए। अग्नि एवं देवताओं की साक्ष्य से बापू ने हमारी शादी कराई। मित्र के लिए बापू शादी करानेवाले गुरुजी (पंडितजी) बने।

उपरोक्त तीनों अनुभवों से साबित होता है बापू जरुरतमंद मित्रों के लिए नि:स्वार्थ भावना से सहायता का हाथ बढाते हैं, पूछे बगैर, अकारण। दिक्कत के समय शादी करानेवाला गुरुजी भी बनता है और मरीजों के लिए जीवनदाई डॉक्टर। इसीलिए यह बापू ‘बेस्टेस्ट’ मित्र तथा ‘बेस्टेस्ट’ डॉक्टर है। 


‘अनिरुद्धा तेरा मैं कितना ऋणी हुआ’ यही सत्य है।

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