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जग में सर्वाधिक सोने के भंडारवाले देशों में जर्मनी का स्थान दूसरे क्रंमांक पर है। इस देश के पास 3,390 टन सोने का भंडार है। पर इसमें से 70 प्रतिशत से अधिक सोने का भंडार जर्मनी से बाहर है। जर्मनी का 1536 टन सोना अमेरीका के
फेडरल रिजर्व के पास है, तो 450 टन ब्रिटन तथा तकरीबन 374 टन फ्रान्स के बैंक में है। दूसरे महायुद्ध के दौरान जर्मनी ने यह सोना इन देशों में सुरक्षित रखने हेतु दिया था। पर जर्मनी के राजनीतिज्ञों का मत है कि अब इस सोने को दूसरे देशों में सुरक्षित रखने की जरुरत नहीं है। इसलिए अब इसमें से कुछ टन सोना वापस लाने की कोशिशें जारी हैं। इस में फ्रान्स से 374 टन और अमेरीका में रखे हुए सोने के भंडार से 300 टन सोना वापस लाने की योजना आंकी गई है।
सन 2020 में यह सोना जर्मनी में वापस लाया जाएगा ऐसी आशा जर्मन बैंक एवं सत्ताधारियों ने जताई थी। फ्रान्स ने यह सोना लौटाने की बात भले ही मानी हो, मगर अमेरीका के फेडरल रिजर्व ने यह सोना दिखाने या उसका अंशमात्र भी लौटाने से इन्कार कर दिया है। इसका स्पष्टीकरण देते हुए ’सुरक्षा का मुद्दा’ और ’सोना देखने आनेवालों के लिए जगह नहीं है’ ऐसे कारण बताए गए।
मगर जर्मनी अपना सोना देखने की बात पर अटल है, ऐसी घोषणा करती रही। तत्पश्चात जब जर्मन प्रतिनिधि न्यूयॉर्क गए तब सोने की पांच-छे ईंटें दिखाकर ’यह आपके सोने के भंडार में से है’, यह कहकर उन्हें बिदा किया गया। पर इसके बाद फिर से जर्मनी ने अपने प्रतिनिधियों को अमेरीका भेजने का निर्णय लिया।
जर्मन प्रतिनिधियों की दूसरी भेंट में उन्हें न्यूयॉर्क फेडरल रिजर्व के सोने के वॉल्ट तक प्रवेश दिया गया। मगर इस बार फिर से फेडरल रिजर्व ने चालाकी से उन्हें नौं कमरों में से केवल एक ही कमरा खोलकर दिखाया। कमरा खोलने के बाद भी सोना केवल देखा जा सकता है, उसे छूआ नहीं जा सकता, ऐसी ताकीद भी दी गई। अमेरीका द्वारा किए गए इस व्यवहार के बाद जर्मन प्रतिनिधि हाथ मलते हुए लौट आए।
अमेरीका के फेडरल रिजर्व द्वारा जर्मनी के साथ किया हुआ यह बर्ताव और सोने के भंडार के संदर्भ में अपनाई हुई भूमिका अंतरराष्ट्रिय स्तर पर चर्चा का विषय बनी हुई है, तथा इससे एक नई बात सामने आई है, वह यह कि वास्तव में फेडरल रिजर्व के पास अधिक सोना नहीं बचा है।
और इस संदेह को पुष्टि मिली है अमेरीका के एक निजी निवेश निधि (हेज फंड) के व्यवस्थापन परिचालक विल्यम केय के विवादास्पद विधान से कि, ’जर्मनी को उसका सोना कभी भी दिखाया नहीं जाएगा। अमेरीका के फेडरल रिजर्व जैसे केंद्रीय बैंकों ने यह सोना देश स्थित जे.पी. मॉर्गन तथा गोल्डमन सॅच जैसे निजि बैंकों को दिया है। बाजार में सोने की कीमतों को नियंत्रित रखने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया है। इसके बदले में फेड को सिक्यूरिटीज दी गई हैं। जर्मनी को अपना सोना कभी भी दिखाई नहीं देगा, क्योंकि वह मेरे तथा मुझ जैसे निवेशकों के खातों में सुरक्षित रखा गया है।’
जुलाई 2013 में केय द्वारा किया गया यह विधान जर्मनी का सोना वापस लाने की सभी आशाओं पर पानी फेरनेवाला साबित हुआ। केय ने खुद कई साल गोल्डमन सॅच में कार्य किया होने के कारण उनका यह विधान गैरजिम्मेदार या निरर्थक नहीं माना जा सकता।
इस विवादास्पद विधान से जर्मनी की केंद्रीय बैंक अर्थात ‘बुंडेस बैंक’ खासी घिर गई है। एक तरफ सोना वापस लाने के लिए बढता हुआ दबाव और दूसरी तरफ फेडरल रिजर्व द्वारा बेरुखी, ऐसे दोहरे संकट से इस बैंक को जूझना पड रहा है। इससे सामयिक समाधा हेतु बैंक ने एक निवेदन प्रसिद्ध किया है कि, केय द्वारा की गई विवेचना पर हम कोई प्रतिक्रिया नहीं देना चाहते।
इसी के साथ निवेदन में यह भी दर्ज किया गया है कि, अमेरीका के फेडरल रिजर्व द्वारा दी गई पारदर्शक जानकारी पर हमारा विश्वास है, तत्पश्चात परिस्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है। परंतु जर्मनी के नागरिक इस बात पर विश्वास नहीं कर रहे हैं। बल्कि जर्मनी के विभिन्न क्षेत्र के दिग्गजों ने मिलकर स्वतंत्र मुहीम चलाई है जिसका नाम है, ’रिपैट्रिएट अवर गोल्ड’ अर्थात हमारा सोना लौटा दो। इस मुहीम के नेताओं ने आरोप लगाया है कि सन 2020 तक अमेरीका से 300 टन तथा फ्रान्स में रखा हुआ सोना वापस लाने हेतु दिए गए आश्वासन अधूरे हैं और टालमटोल करने के तरीके हैं।
जर्मनी के इस प्रसंग के बाद और एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद मुद्दा उपस्थित हुआ है और वह यह कि क्या फेडरल रिजर्व के पास वास्तव में सोने का भंडार है? फेडरल रिजर्व के दावे के अनुसार अमेरीका के पास तकरीबन 8,133 टन इतने बडी मात्रा में सोने का भंडार है। यह सोना न्यूयॉर्क के फेडरल रिजर्व, डेनेवर, अमेरीकी सेना ‘फोर्ट नॉक्स’ तल जैसे स्थानों पर रखा गया है।
परंतु विवाद की बात यह है कि 1953 के बाद इनमें से किसी भी स्थान पर सोने का ’ऑडिट’ नहीं किया गया है। इसलिए यह प्रश्न निर्माण हुआ है कि, अमेरीका के फेडरल रिजर्व के दावे पर विश्वास कैसे किया जाए? जर्मनी को इस बात का खेद हुआ होगा कि उसके अधिकारियों से उचित व्यवहार नहीं किया गया, मगर अचरज की बात तो यह है कि अमेरीकी सांसदों को भी सन 1970 के बाद देश में सोने के भंडार का दर्शन नहीं कराया गया है। अमेरीका के चंद प्रसार माध्यमों ने तथा विश्लेषकों ने यह मुद्दा बार बार उठाया है। पर इसका उत्तर देते समय फेडरल रिजर्व हम पर विश्वास करें (’ट्रस्ट अस’) कहकर बात को टाला है। अमेरीका के वरिष्ठ सांसद रॉन पॉल ने सन 2011 में सोने के ऑडिट के संदर्भ में प्रस्ताव लाने का प्रयास किया, परंतु इस पर भी कोई कारवाई नहीं की गई है।
इसलिए अमेरीका जितना सोना उसके पास होने का दावा कर रही है उसके अस्तित्व पर ही संदेह निर्माण हो रहा है। ऐसी परिस्थिति में दूसरे देशों में रखे गए सोने का क्या हुआ होगा इसका अंदाजा ही लगा सकते हैं। आनेवाले समय में अमेरीका द्वारा जर्मनी के साथ गोपनीय करार करके या सोने की कीमत अदा करके इस प्रसंग को मिटाने की संभावना अधिक है। यदि ऐसा भी नहीं हुआ तो जर्मनी को ’हमारा सोना खो गया; किसी ने न देखा’ ऐसा चीखने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं रहेगा।
जर्मनी को सोना दिखाने या सोने का परिक्षण कराने के लिए अमेरीका सरकार भले ही नहीं मानती हो फिर भी यह सोना है, और इस पर जग विश्वास करे, इस बारे में वह आग्रही है। देखा जाए तो चलन और सोने का संबंध अमेरीका ने ही सन 1971 में तोड दिया था। इसलिए यह समझ में नहीं आ रहा है कि सोना उसके पास है अथवा इस संदर्भ में विश्वास रखा जाए ऐसा दावा अमेरीका क्यों कर रही है। मगर सोने का भंडार, अपनी अर्थव्यवस्था और चलन के बारे में अंतरराष्ट्रिय समुदाय और निवेशकों को विश्वास दिलाता है। अमेरीका के अर्थ विशेषज्ञों ने सोने के इतने भंडार रखने के प्रति विभिन्न कारण दिए हैं। फेडरल रिजर्व के भूतपूर्व गवर्नर ऍलन ग्रीनस्पॅन ने कहा था कि, जरुरत पडने पर इस्तेमाल करने हेतु सोने का भंडार रखा है। तो विद्यमान गवर्नर बेन बर्नांके ने उत्तर दिया कि सोने का भंडार जतन करना यह दीर्घकालीन परंपरा है।
मुडीज् ऍनालिटिक्स में प्रमुख अर्थ विशेषज्ञ के रूप में जाने जानेवाले मार्क जैंडी ने इन शब्दों में सफाई देने की कोशिश की कि, हमारे पास सोने का बडा भंडार होने की वजह से निवेशकों को कुछ हद तक विश्वास होता है।
भारत जैसे देश ने सन 1991 में आर्थिक संकट के दौरान सोना गिरवी रखकर पैसे जुटाए थे और अर्थव्यवस्था को संभाला था। गिरवी रखने के लिए सोना था इसलिए उस दौर में अर्थव्यवस्था पर निवेशकों का विश्वास गंवाने पर भी भारत को निधि प्राप्त हुई।
अब अमेरीकी प्रतिनिधी भी ऐसी टीका करने लगे हैं कि, अर्थव्यवस्था कितनी भी सुदृढ क्यों न हो फिर भी उसका आधार सोना ही होना चाहिए, प्रिंटिंग प्रेस में संपत्ती बनाई नहीं जा सकती।
इसीलिए फेडरल रिजर्व के पास रखे हुए जर्मनी के सोने का क्या हुआ, यह प्रश्न केवल अमेरीका और जर्मनी तक ही सीमित नहीं रह सकता। इसकी वजह से अमेरीका तथा विश्व की अर्थव्यवस्था के बारे में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठ रहे हैं। वास्तव में जर्मनी को अभी ही अपना सोना फेडरल रिजर्व से वापस लेने की क्यों सूझी, यह बात सोचने योग्य है।
अमेरीकन अर्थव्यवस्था कर्ज के बोझ तले कुचली जाते समय केवल जर्मनी में ही नहीं बल्कि विश्वभर में अविश्वास, अनिश्चितता का वातावरण निर्माण हो गया है। विश्व अर्थव्यवस्था पर इसके विपरीत परिणाम होने के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। इसीलिए जर्मनी के स्वामित्व की सोने की ईंटें उन्हीं को पुन: प्राप्त हों, यही हम सबकी मंगल कामना है।
॥ हरी ॐ॥
- अंबरीष परळकर
#BringBackOurGold
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॥ हरि ॐ ॥
मार्ग पर चल पड़ा...........
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Dr. Shivaji Hanumant Dange |
लेखक - डाँ.शिवाजी हनुमंत डांगे(आय. आर. एस.)
बॉम्बे व्हेटनरी कालेज, परेल मुंबई से पशुवैद्यकीय शास्त्र में पदवी (एम. व्ही. एस. सी.) एम. पी. एस. सी. परीक्षा में प्रथम क्रमांक नाशिक के भूतपूर्व उपजिलाधिकारी यू.वी.एस.सी. में भारतीय महसूल सेवा में (आय.आर.एस.) में नियुक्ति भारत के मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, दिल्ली जैसे अनेक राज्यों में विविध पदों पर कार्यरत रहे। वर्तमान में पूना विभाग के ‘कस्टम्स, सेंट्रल एक्साईज ऍण्ड सर्व्हिस टैक्स में सह-आयुक्त के पद पर कार्यरत।
पंद्रह वर्ष पहले थोड़े समय के लिये मिले हुये व्यक्ति का हमें मिलना, मुझे उसे पहचान लेना, उनके द्वारा मुझे पहचान लेना, सब कुछ कल्पनातीत है। इन्हीं विचारों की मग्नाव्यवस्था में, पैर से लेकर सिर तक भीगी हुयी अवस्था में, हम हॉल में पहुँच गये। इसी स्थिती में मैं मंच की ओर देख रहा था। इतने में मंच पर सद्गुरु का आगमन हुआ और एकटक, भावविभोर अवस्था में मैं उन्हें देखता ही रह गया। तभी आरती शुरू हो गयी.................
मेरे भावविश्व में विचार गूँजा, यहीं तो है सद्गुरु की अनुभूति।
पैर से लेकर सिर तक पूरी तरह भीगी हुयी अवस्था में मैं मंच की ओर देख रहा था। इतने में ही मंच पर सद्गुरु का आगमन हुआ और मैं एकटक, भाव-विभोर होकर उन्हें देखता ही रह गया। तभी आरती शुरू हो गयी। मैं यादों के झूले में हिचकोले लेते हुआ कुछ याद करने का प्रयास कर रहा था। ‘हम सद्गुरु से कहाँ मिले थे? उसी समय आरती सम्पन्न हो गयी। दर्शन करते हुये, भीगें जूतों की थैली संभालते हुये मै व मेरे मित्र श्रीयुत अरूणराव साळुंके उस भक्ती के जनसागर के साथ-साथ ‘मानव-सेवा संघ’ सायन के हॉल से बाहर आ गये। वह सन् २००२ की गुरुपूर्णिमा की रात का दस बजे का समय था। उसी दिन शाम को छ: बजे, जब मैं अपने विक्रोली स्थित कार्यालय से घर जाने की तैयारी कर रहा था, तभी मेरे मित्र श्री.अरूणराव का फोन आया कि, ‘वे मेरे कार्यालय में आ रहे हैं।’ थोड़ी ही देर मं वे आ गये। उन्होंने बताया कि आज ‘गुरुपूर्णिमा’ है। इससे पहले मैं कभी भी किसी भी गुरु के पास अथवा गुरुपूर्णिमा के उत्सव में गया नहीं था, अत: मैंने कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया। अरूणराव ने कहा, ‘यदि आपके पास समय हो तो हम सायन स्थित मानव-सेवा संघ में चले व अनिरुद्ध महाराज के दर्शन ले।’ उन्हें कार्यक्रम के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं थी। अनायास ही मैंने उन्हें मूक संमती दे दी और हम गाड़ी से सायन पहुँच गये।
बरसात का मौसम होने के कारण शाम से ही जोरदार बरसात हो रही थी। ऐसा लगा कि ड्रायव्हर को देर हो जायेगी, अत: मैंने उसे घर भेज दिया। बरसात में भीगते-भीगते ही हम दोनों मानव-सेवा संघ के मुख्य द्वार तक आ गये व कौतुहल वश, यह कैसा उत्सव हो रहा है, यह देखने के लिये हम वहीं खड़े रहें। वहाँ पर उपस्थित बहुत सारे स्वयंसेवक, शिस्तबद्ध पद्धती से कतार का नियोजन कर रहे थे। हम भी कतार से जाकर दर्शन लेंगे, ऐसा सदविचार मन में आने से कहों या यहाँ पर हमारी पहचानवाला कोई भी ना होने के कारण कहो, हमने भी कतार से जाकर दर्शन करने का निश्चय किया व कतार का अंतिम सिरा ढूंढ़ने के लिये चल पड़े। बरसात में भीग़ते हुये हम आधे घंटे तक चलते रहे फिर भी कतार का अंतिम सिरा मिल नहीं रहा था।
विभिन्न रास्तों चलते-चलते अंतत: हम उस ‘जन-कतार’ के अंतिम सिरे पर खड़े हो गये। शाम के सात बजे से लेकर रात के नौ बज चुके थे। फिर कतार में हम सिर्फ बीस मीटर तक ही आगे बढ़ पाये थे। लोग भक्ती-गीत गा रहे थे। चूँकि हमें कुछ भी पता नहीं था। अत: हमारे मन में चुल-बुल चल रही थी। काफी निराशा हो रही थी। मेरा गणितीय मन हिसाब लगाने लगा कि यदि दो घंटों में कतार सिर्फ बीस मीटर तक ही आगे बढ़ी है तो रात के बारह बजे तक यानी गुरुपूर्णिमा के समाप्त होने तक ज्यादा से ज्यादा हम पचास मीटर तक आगे जा सकेंगे। यानी बेमतलब तीन घंटों तक कतार में खड़े रहने के बाद भी आज के दिन दर्शन करने का हमारा उद्देश्य अधूरा ही रहने वाला है। आलसी मन कतार छोड़कर घर जाने का इरादा कर रहा था परन्तु अभी भी विवेक उसका विरोध कर रहा था।
अंतत: आज तो दर्शन पाना संभव ही नहीं हैं, इस विचार ने छ्लाँग मारी और ज्यादा से ज्यादा प्रदक्षिणा करेंगे व जिस तरह पंढ़रपूर में बाहर से दर्शन करते हैं तथा कलश को नमस्कार करते हैं वैसा करके जायेंगे, इस तरह के अनावश्यक कारण का सहयोग मैंने अपने आलसी विचारों को दिया और हम कतार से बाहर निकल आये। कतार छोड़ने के मेरे विचार को और भी ताकत देने के लिये मैंने अरूणराव से कहा, ‘अरूणराव, मैंने ऐसा सुना है कि, सच्चे सद्गुरु उनकी इच्छा के अनुसार जब उचित समय आता है तब वे दर्शन देते ही है। यदि वास्तव में शक्ती होगी तो वे दर्शन देंगे ही। आज ही देख लेते हैं कि वास्तविकता क्या है?’ उसके बाद हम प्रदक्षिणा करके मुख्य-द्वार पर आ गये।
दो घंटो तक बरसात में भीगने के कारण हम पूरी तरह गीले थे। जब हम मुख्यद्वार पर नमस्कार करके पीछे मुडे़ तो मुझे एक सज्जन का चेहरा परिचित सा लगा। हजारो लोगों की भीड़ में कोई तो कुछ पहचाना सा लगा परन्तु ठी़क से याद नहीं आ रहा था। फिर भी साहस करके मैंने उनसे पूछा, ‘‘क्या भाई, आपका नाम सावंत है?’’ उन सज्जन ने उत्तर दिया, “हाँ, मैं सुधाकरसिंह सावंत, परन्तु आप कौन”’ मैंने कहा, ‘‘अरे, पंद्रह साल पहले आप मुझे कॉलेज में मिले थे। मैं शिवाजीराव ड़ांगे हूँ।’’ उन्होंने पूछा, “याद आया, परन्तु आप यहाँ कैसे?” मैंने कहा, “मेरे मित्र यहाँ पर गुरुपूर्णिमा के दर्शन के लिये लेकर आये हैं। दर्शन की कतार में इंतजार करते-करते हम तंग आ गये। अब दर्शन नहीं होंगे, इस निराशा के साथ घर वापस जा रहे हैं।” “थोड़ी देर ठ़हरो।” सावंत ने कहा। वे कहीं से एक थैली ले आये व हमसे हमारे भीगे हुये जूतों को उसमें रखने के लिये कहा। सावंत ने कहा, “आज आकर तुमने बहुत ही अच्छा किया है। अब इस दरवाजे से ऊपरी मंजिल पर जाओ।” उन्होंने हमें दर्शन-हॉल की ओर जाने का मार्ग दिखाया।
मन में विचार आया, पंद्रह वर्ष पहले थोडे समय के लिये मिले हुये सज्जन का अचानक मिलना, अचानक मेरे द्वारा उन्हें पहचान जाना, व उनके द्वारा मुझे पहचान लेना, सभी कुछ कल्पना से परे हैं। इन्हीं विचारों में डूबे हुये, पैर से लेकर सिर तक पूरी तरह भीगी अवस्था में ही हम हॉल में पहुँच गये। इसी स्थिती में मैं मंच की ओर देख रहा था कि तभी मंच पर सद्गुरु का आगमन हुआ। और मैं एकटक, भावविभोर होकर उन्हें देखता ही रहा। तभी आरती शुरु हो गयी....... मेरे भावविश्व में विचार गूँजा, यहीं तो है सद्गुरु की अनुभूती।
मैं केंद्र सरकार की महसूल सेवा में बिहार, मध्यप्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में अनेक वर्षों तक कार्यरत था, इसीलिये महाराष्ट्र से, मुंबई से मेरा कोई संपर्क नहीं था व मुझे बापू के बारे में बिना किसी जानकारी के, किसी से भी उनके बारे में सुने बगैर, अचानक ही मेरे परममित्र के माध्यम से, गुरुपूर्णिमा के दिन पर बुला लिया। आलसी, चंचल मन के विचारों के कारण दर्शन करने के प्रयत्न को अधूरा छोड़कर जाने वाले मुझको, सावंत के माध्यम से दर्शन व आरती के लिये रुकवा लिया, यह सबकुछ मेरे लिये अनाकलनीय था। यहीं तो है सद्गुरु की अनुभूति। साई ने कहा ही है -
माझा माणूस देशावर । असों का हजारों कोस दूर।
आणीन जैसे चिडीचे पोर । बांधून डोर पायास॥
(श्रीसाईसच्चरित्र : अध्याय-२८ : ओवी-१५)
(अर्थात : मेरा भक्त नज़दीक हो या हजारो कोस दूर हो, मैं उसे चिडियां के बच्चे की तरह पैर में डोर बाँध कर खींच ही लाऊँगा।)
“मैं सद्गुरु को कहाँ मिला था? यह याद करने का प्रयास करते-करते मैं मानव सेवा संघ के हॉल से बाहर आ गया। एक अभूतपूर्व अनुभूति हुयी थी। जिस तरह चिडिया के बच्चे के पैरों में ड़ोरी बाँधकर लाया जाता है उसी तरह सद्गुरु अनिरुद्ध बापू ने मुझे, अनेक वर्षों तक परराज्य में भ्रमण करने के बाद, वापस बुला लिया था। यादों के झूले में झोंके लेते-लेते मुझे अचानक याद आया। ‘अरे, ये अनिरुद्ध बापू तो मुझे सन् १९९० में परेल में डॉ.अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी के रूप में मिले थे। लगभग एक तप (१२ वर्ष) बाद’ अब याददाश्त के दरवाजे फटाफट खुलने लगे थे।
सन् १९९० में मैं परेल स्थित मुंबई पशुवैद्यकीय महाविद्यालय में पदव्युत्तर (post graduate) की शिक्षा प्राप्त कर रहा था। मैं एक किसान परिवार से था अत: मेरे माँ-बाप व अन्य परिवारीय सदस्य गांव में ही रहते थे। उस समय मेरी माँ को (जिन्हें हम ‘बाई’ कहते हैं) नाक से खून गिरने की तकलीफ थी। गाँव के डॉक्टरों द्वारा काफी इलाज किया गया परन्तु किसी भी प्रकार का फायदा नहीं हुआ। अंतत: मैंने बाई को उपचार के लिये मुंबई लाने का निश्चय किया। चूँकि मैं परेल के एक होस्टेल में रहता था अत: मैंने बाई व उनके साथ बड़ी बहन अक्का को मामा के यहाँ नायगाँव में लेकर आया। परेल में हम विद्यार्थियों को सस्ता व विश्वासू उपचार व मार्गदर्शन प्रदान करने वाले डॉ.जोशी का क्लिनिक था। वहाँ से नज़दीक ही डॉ.अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी का क्लिनिक था। मैंने उपचार के लिये बाई को उन्हें दिखाने का निश्चय किया।
डॉ.अनिरुद्ध जोशी ने विविध प्रकार की रक्त की जाँच इत्यादि करवाने को कहा। मुझे मेडिसिन, पॅथालोजी का आधा-अधूरा ज्ञान होने के कारण, मुझे ऐसा लगा कि ये सब जाँचे व्यर्थ व अपव्यय ही है। मेरी अल्प बुद्धि को लगा कि जब बीमारी नाक की है तो फिर ये सब अनावश्यक खर्च किस लिये? परन्तु फिर बेहे सभी जाँचों के हो जाने बाद मैंने सभी रिपोर्टस डॉ.अनिरुद्ध को दिखायी। उसके बाद उन्होंने बाई को, डॉ.किर्तने जो नाक, कान, गला, तज्ञ थे और जिनका क्लिनिक ऑपेरा हाऊस में था, उन्हें दिखाने को कहा। डॉ.अनिरुद्ध ने अपने धीर-गंभीर आश्वासक आवाज में कहा, “सब कुछ ठी़क हो जायेगा।’ डॉ.किर्तने ने ऑपरेशन करके नाक में से ‘गांठ़’ निकालने का निश्चय किया। ‘गांठ़’ शब्द का उस समय मतलब था ट्युमर और ट्युमर यह मॅकिंग्नंट हो सकता है, ऐसा विचार मेरे अल्प ज्ञान के फलस्वरूप मेरे मन में आया और मैं घबड़ा गया। दुसरे ही दिन डॉ.किर्तने ने ऑपरेशन किया व उस गांठ़ को पॅथॉलोजी परीक्षण के लिये भेजा व मुझे रिपोर्ट लाने के लिये कहा। यद्यपि मैंने लॅब से वह रिपोर्ट ले ली थी परन्तु उसे पढ़ने का, देखने का साहस मैं नहीं कर सका। परन्तु रिपोर्ट देखने के बाद डॉ.किर्तने ने समाधान व्यक्त किया। उसके बाद वापस आकर हमने सारी रिपोर्ट्स डॉ.अनिरुद्ध को दिखायी। उन्होंने आश्वासक शब्दों में कहा, ‘सबकुछ अच्छा है’ और मैं निडर हो गया। उसके बाद कभी भी बाई को नाक से रक्तस्त्राव की तकलीफ नहीं हुयी। अत्यावश्यक रक्त जाँचो को अनावश्यक समझकर संशय व्यक्त करना अनुचित था, यह मुझे बाद में पता चला। बाई को रक्तदाब व मधुमेह की बीमारी होने के कारण ये सभी जाँचे ऑपरेशन से पहले अत्यावश्यक होती ही है, यह भी मेरी समझ में आ गया। शायद इसी प्रभाव के कारण ही मैं लगभग एक तप (१२ वर्ष) तक दूर चला गया था।
सन् १९९० के बाद महाराष्ट्र लोकसेवा आयोग की ओर से महाराष्ट्र में प्रथ्म आने के बाद मेरी नियुक्ति मुंबई के बाहर उपजिला अधिकारी के पद पर हुयी। उसके बाद संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा में आय.आर.एस. के पद पर नियुक्ति होने के बाद मैं अनेक वर्षों तक महाराष्ट्र के बाहर रहा। उसके बाद जब मैं बदली होकर मुंबई में आया तो एक तप (१२ वर्षों) के बाद भी मुझे उनके बारे में कोई भी जानकारी न होते हुये भी सद्गुरु अनिरुद्ध ने कृपा करके गुरुपूर्णिमा के अवसर पर मुझे उनके बापू परिवार में शामिल कर लिया। इन सभी घटनाओं की याद करते-करते, सद्गुरु की लीला की अनुभूति लेते हुये, मुझे साईनाथ का उपदेश याद आने लगा,
तुम्ही कोणी कुठेही असा। भावे मजपुढे पसरिला पसा।
मी तुमचिया भावासरिसा । रातंदिसा उभाच।
माझा देह जरी इकडे । तुम्ही सातासमुद्रापलीकडे।
तुम्ही काहीही करा तिकडे। जाणीव मज तात्काळ॥
(श्रीसाईसच्चरित्र: अध्याय-१५:ओवी-६७ /६८)
सद्गुरु कृपा की अगाध लीलाओं को याद करते हुये, मैं मानव सेवा संघ के हॉल से बाहर निकला । रास्ते पर अभी भी भक्तीसागर उमड़ रहा था। मैं सद्गुरु की प्रेममय भक्ती की बरसात में पूरीतरह भीगे हुये मन के साथ, आनंद से ओतप्रोत मन की अवस्था में घर की ओर मार्ग पर चल पड़ा।
॥ हरि ॐ॥
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डॉक्टर अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी, एमडी (मेडिसीन)
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Dr. Shirish Datar |
लेखक: डॉ. शिरीष दातार
* परिचय *
१९७८ में नायर मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस,
१९८२ में नायर मेडिकल कॉलेज से एमडी(पेडिएट्रिशियन),
१९८३ से जनरल प्रॅक्टिस.
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रुईया से नायर हॉस्पिटल, टोपीवाला मेडिकल कॉलेज - मेरा क्लासमेट, मेरा घनिष्ठ मित्र, मेरा सखा और आज अनिरुद्ध बापू, मेरे सदगुरु - मेरा भगवान।
मैंने मेरे इस चहिते मित्र की मित्रता और चहिते भगवान की भगवंतता दोनों बातों को भरपूर अनुभव किया है। आज मैं आपको इसकी मित्रता के किस्से बताऊंगा और इनमें ही उसकी छिपी हुई भगवंतता दिखाई देगी।
सन १९७३ के जून महीने में मैं इंटर सायन्स की पढाई के लिए रुईया कॉलेज में दाखिल हुआ। कॉलेज का पहला साल मैंने ठाणा कॉलेज (बेडेकर कॉलेज) से पास किया। बापू कॉलेज के पहले साल से ही रुईया में थे। मैं कॉलेज में नया था। कॉलेज का आय कार्ड मिला और मैं ग्रंथालय में गया। तब हमें आय कार्ड पर एक किताब घर ले जाने के लिए मिला करता था। इसीलिए मैं ग्रंथालय में गया था, क्योंकि मेरी आर्थिक स्थिति के अनुसार सभी टेक्स्टबुक्स खरीदना संभव नहीं था। ग्रंथालय के काऊंटर पर भीड थी। मैं वहीं पास में जाकर खडा हो गया। थोडे ही अंतर पर एक टबल था और उस टेबल के पास बापू बैठे हुए थे। तब वे मेरे लिए अपरिचित थे। मैंने जब उस लडके की ओर देखा तो पता चला कि वह मुझे इशारे से अपने पास बुला रहा है। चेहरा देखा तो ध्यान में आया कि यह लडका लेकचर्स के दौरान मेरे ही क्लास में था, अर्थात यह मेरा क्लासमेट है, इतना परिचय हुआ। फिर भी मन में डर सा था कि मैं इस कॉलेज में नया हूं और यह यहां पर पिछले एक साल से है; कहीं रैगिंग का इरादा तो नहीं? पर साहस कर मैं उसके टेबल तक गया। उसने मुझे शांति से गंभीर आवाज में पासवाली कुर्सी पर बैठने को कहा। वह स्वर ही आश्वासक था। मेरा डर निकल गया और तनाव रहित कुर्सी पर पैठ गया। हम पहली बार एक-दूसरे से बातें कर रहे थे। मगर वह मेरे बारे में सबकुछ ’जानता’ था। "तुम शिरीष दातार। डोंबिवली से आते हो, बराबर?" यही था उसका पहला वाक्य। फिर उसने अपना परिचय दिया। "मैं अनिरुद्ध धैर्यधर जोशा। शिवडी में रहता हूं। मेरे पिताजी डॉ. धैर्यधर हरिहरेश्वर जोशी। परेल विलेज में उनका क्लीनिक है।" नाम सुनकर ही मैं सकपकाया। इतने में उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, "आयकार्ड पर किताब लेनेवाले हो ना? मैं इसका कारण जानता हूं। मेरे पास सभी किताबें हैं। मुझे लायब्ररी से किताब ले जाने की जरुरत नहीं है। अगर तुम और भी एक किताब ले जाना चाहो तो मेरे आयकार्ड पर ले जाओ।" मैं अचम्भित हो गया कि मेरे इस क्लासमेट से अभी अभी परिचय हुआ (मेरे अनुसार) और यह खुद अपनी ओर से मेरी इतनी सहायता कर रहा है। किसी को विश्वास होगा? मगर यह घटना १०८% सच है। यह अनिरुद्ध, यह बापू ऐसा ही है।
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Aniruddha Bapu |
मई १९८३ में बापू और मैं, हम दोनों ने एम.डी. का अभ्यासक्रम पूरा किया। मैं नायर हॉस्पिटल में रजिस्ट्रार की पोस्ट पर था। बापू उन्हीं दिनों (मई १९८३) पोस्टिंग पूरी करके परेल में निजी प्रैक्टिस करने लगे थे। रविवार का दिन था। सुबह ११ बजे डोंबिवली से मेरे चाचा का फोन आया। उन दिनों डोंबिवली से ट्रंककॉल लगाना पडता था। मेरे पिताजी डोंबिवली में रहते थे, वृद्ध थे, तकरीबन ७५ साल के। पिछली रात को उनकी तबियत बिगड जाने के कारण उन्हें ठाकुर हॉस्पिटल में ऐडमिट कराया गया था। मैं तुरंत नायर हॉस्पिटल से रवाना हुआ। निकलने से पहले बापू के घर पर फोन करके बताया कि मैं डोंबिवली जा रहा हूं, और जाने का कारण भी बताया।
मैं डोंबिवली पहुंचा। हॉस्पिटल पहुंचकर पता चला कि पिताजी की तबियत अधिक बिगड जाने की वजह से उन्हें डॉक्टर ने मुम्बई ले जाने को कहा है औरे मेरे चाचा उन्हें लेकर नायर हॉस्पिटल ही गए हैं। मैं तुरंत वहां से लौट पडा। बहुत टेंशन था। अनिरुद्ध (बापू) को संदेश देना संभव नहीं था। मैं घंटे-डेड घंटे में नायर पहुंचा। हॉस्पिटल के अहाते में पहुंचते ही मुझे पता चला कि पिताजी को आय.सी.यू. में ऐडमिट किया गया है। मैं धीरज खो बैठा। मैं लिफ्ट से हॉस्पिटल की छठी मंजिल पर पहुंचा क्योंकि वहीं आय.सी.यू. था। मैं आय.सी.यू. की दिशा में दौड रहा था कि इतने में आय.सी.यू. का दरवाजा खुला और खुद बापू और डॉ. श्रीरंग गोखले बाहर निकले। बापू मेरे कंधे पकडकर बोले, "शिरिष, पिताजी की तबियत बहुत खराब थी, पर अब ट्रीटमेंट के बाद फरक पडा है। ही इज आऊट ऑफ डेंजर।"
यह सुनकर मैं खुद को रोक न सका और रोने लगा। मुझे शांत करके बापू मुझे आय.सी.यू. में ले गए। पिताजी से मिलकर मैं बाहर आ गया। बापू और डॉ. श्रीरंग अंदर ही थे। बाहर बापू का ड्राईवर खडा था। मुझे देखते ही आगे बढकर बोला, "साहब, आप अपने दोस्त जरा समझाईए।" मैंने पूछा "क्यों?" तब वो बोला, "डॉक्टर साहब ने कितनी रफ्तार से गाडी चलाई है? मैं उनके बगल में जान मुठ्ठी में लिए बैठा हुआ था। मैंने आज तक ऐसी ड्राईविंग नहीं देखी। शिवडी से नायर तक केवल ७-८ मिनटों में लाया आपके दोस्त ने।" मैं अचरज में पड गया। "हां समझाऊंगा" कहकर उसे संतुष्ट किया। इतने में बापू बाहर निकले। "पिताजी की तबीयत अब ठीक है, श्रीरंग संभाल लेगा। अब मैं घर जा रहा हूं।" ऐसा कहकर बापू चले गए। फिर डॉ. श्रीरंग ने सारी बात बताई। जब पिताजी को आय.सी.यू. में लाया गया तब वो ड्यूटी पर था। यह पेशंट मेरे पिताजी हैं और मैं हॉस्पिटल में नहीं हूं इस बात का पता चलते ही उसने बापू के घर पर फोन करके यह बात बताई। उस वक्त बापू घर पर ही थे। फोन रखने के बाद दसवें मिनट में बापू आय.सी.यू. में थे। मित्र एक मित्र के लिए दौडा। बापू की मित्रता रेखांकित हो गई। मगर बात यहीं खत्म नहीं होती। बापू की ट्रीटमेंट की वजह से मेरे पिताजी की जान बची। दो दिनों बाद मैं पिताजी को घर ले जा सका। मेरे पिताजी की तबीयत में सुधार देखकर डोंबिवली के डॉक्टर ठाकुर भी अचरज में पड गए। एक डॉक्टर के तौर पर बापू कैसे हैं यह भी रेखांकित हो गया।
६ सितम्बर १९८४, हमारी शादी का दिन। हम ने रजिस्टर्ड विवाह करने का निर्णय लिया था। इसके अनुसार एक महीना पहले नोटिस दी गई थी। ठाणे से रजिस्ट्रार खुद नेरल आनेवाले थे। हम ५ तारीक को उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा कि वे नहीं आ पाएंगे। अब क्या करें? यह सवाल खडा हो गया। हम अपने घर कर्जत पहुंचे। अनिरुद्ध (बापू) हम से पहले ही हमारे घर पहुंच चुका था। सारी बात सुन लेने पर वह बोला, "कोई चिन्ता मत करो।" मेरे ससुरजी ने भागदौड करके शादी वैदिक तरीके से कराने हेतु पंडितजी से बातचीत तय कर आए। ६ तारीक को हम सब शादी के लिए नेरल पहुंचे। बापू भी हमारे साथ थे ही। महुरत का समय नजदीक था पर पंडितजी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। ससुरजी ने फोन किया तो पता चला कि वे बीमार हैं और आ नहीं पाएंगे। सभी दुविधा में पड गए कि अब क्या करें? सभी रिश्तेदार आ चुके थे, पर अब विधी कैसे की जाए? बापू मेरे पास आकर बोले, "अरे शिरीष, चिन्ता क्यों करते हो? जोशी गुरुजी हैं ना! मैं सब विधियां, मंत्र जानता हूं।" बापू जोशी गुरुजी बन गए। अग्नि एवं देवताओं की साक्ष्य से बापू ने हमारी शादी कराई। मित्र के लिए बापू शादी करानेवाले गुरुजी (पंडितजी) बने।
उपरोक्त तीनों अनुभवों से साबित होता है बापू जरुरतमंद मित्रों के लिए नि:स्वार्थ भावना से सहायता का हाथ बढाते हैं, पूछे बगैर, अकारण। दिक्कत के समय शादी करानेवाला गुरुजी भी बनता है और मरीजों के लिए जीवनदाई डॉक्टर। इसीलिए यह बापू ‘बेस्टेस्ट’ मित्र तथा ‘बेस्टेस्ट’ डॉक्टर है।
‘अनिरुद्धा तेरा मैं कितना ऋणी हुआ’ यही सत्य है।
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॥ हरि ॐ ॥
मध्यम मार्ग
परमपूज्य बापू व्दारा लिखे गये धर्मग्रंथ का नाम ही है "श्रीमद्पुरुषार्थ" । दैववादिता अथवा शरीर पर भस्म लगाने की बात बापू ने कभी नही की और किसी को भी शिक्षण, ग्रहस्थी, व्यवसाय आदि की ओर दुर्लक्ष करने को नही कहा । परन्तु प्रवृत्तिवादी जीवन को अधिकाधिक अच्छीतरह से जीने के लिये तथा उसके यशस्वी होने के लिये धर्म, अर्थ, काम, इन पुरुषार्थो के साथ-साथ भक्ती और मर्यादा, ये दो पुरुषार्था नितांत आवश्यक है, यही बात सद्गुरु श्री अनिरुध्द हमेशा से कहते रहे है ।
वर्तमान वैश्विक करण के युग में जिसकी वास्तव में दुर्दशा हो रही है, वह है मध्यम वर्ग । वे अच्छीतरह से पैसा, धन अर्जित नही कर पाते और प्राप्त धन का विनियोग कैसे करे, यह भी वे ठीक से नही समझ पाते । वास्तव मे यही मध्यम वर्ग, भक्ती व मर्यादा के पुरुषार्थ के पालन का ज्यादा से ज्यादा प्रयत्न करता रहता है और नीतीयों का, संस्कृती का संरक्षण व संवर्धन भी यही मध्यम वर्ग करता रहता है ।
जैसेही परमपूज्य सद्गुरु से इस वर्ष के "प्रत्यक्ष" के वर्धापन दिन के विषय के बारे में पुच्छा तो उन्होने तुरत जो उत्तर मुझे दिया वह था, "मध्यमवर्गिय लोगों को "अर्थ" पुरुषार्थ के बारे मे उचित जानकारी दो ।" उनके मर्गदर्शन में ही हम सब लोंगों ने विभिन्न विषयों, समीकरणों, नीतीयों तथा तत्त्वों पर निबंध तैयार किये । संपादक मंडल तथा उनके सहकर्मियों ने अविश्रांत मेहनत की । परमपूज्य बापू प्रत्येक बैठक मे नयी-नयी चीजें जोडते ही रहे ।
इस विशेषांक को तैयार करते समय हम सभी ने बहुत कुछ सीखा । मुख्य बात यह है कि हमें, बापू के सभी लोगों के प्रति प्रेम के एक अनोखे दृष्टिकोण का अहसास हुआ । बापू का प्रेम, प्रत्येक श्रध्दावान की सहायता करने के लिये कितना आतुर व तत्पर रहता है, इसका विलक्षण अनुभव हमे इस निमित्त से प्राप्त हुआ ।
परमपूज्य श्री अनिरुध्द द्वारा (बापू द्वारा) आपके हाथों में दिये गये इस "प्रत्यक्ष" के विशेषांक को जो कोई भी अपने जीवन में आचरित करेगा उअसे ही जीवन का वास्तविक अर्थ समझ मे आयेगा और वही इसे प्राप्त कर सकेगा ।
मात्र " इस अर्थ पुरुषार्थ की अधिष्ठात्री देवता श्रीलक्ष्मी, सबको ही धन प्रदान करती रहती है, परन्तु तृप्ती, शांती व समाधान सिर्फ नारायण के भक्तों को ही प्रदान करती है." परमपूज्य बापू के ये शब्द हथेली पर लिखकर रखो ।
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श्रीसाईसच्चरितका महिमा कथन करते हूऐं मेरे सद्गुरु श्री अनिरुध्दसिंह (अनिरुध्द बापू) कहते है, श्रीसाईसच्चरित यह केवल श्रीसाईनाथका चरित्रकथन नही। यह ग्रंथ विविध भक्तोंका जीवन और उन्हे साईक्रिपा कैसे प्राप्त हूई इन बातों का विवेचन है। यह ग्रंथ इतिहास बताता है। इनमे जितना साईनाथजीका चरित्र है उतनाही साईभक्तोंका चरित्र है और इसलिये यह ग्रंथ हमारेलीये परमेश्वरकी क्रिपा कैसे प्राप्त की जाए यह बतानेवाला मार्गदर्शक है । श्रीसाईमहिमाके प्रथम चौपाईमें बापू कहते है ,
"साईनाथ मेरा देव ; साईनाथ मेरा माव ; साईनाथ मेरा साव ; साईनाथ सद्गुरु !"
सन १९९५ मे जब उपासनाकी शुरुवात हुई; बापू खुद यह उपासना करते । तत्पश्चात सुचितदादा वह उपासना करने लगे । ‘साईमहिमा ’ यह इस उपासना का अंग था और सब उपस्थित श्रध्दावान इस उपासनामें शामिल होकर नियमित उनके साथ उपासना का पाठ करते थे । बापू कहते है, श्रीसाईनाथ यह उनके दिग्दर्शक ( दिशा दर्शन कराने वाले ) गुरु है । आन्हिक में अचिन्त्यदानी स्तोत्रके चौपाईमें यही उद्देशीत की गई साईनाथकी प्रार्थना है ।
साईरामा तव शरणम् । कृपासिंधो तव शरणम् । दिगंबरा दीनदयाला । दिशादर्शका तव शरणम्।ॐ कृपासिंधू श्री साईनाथाय नम: । और ॐ अभयदाता श्रीस्वामीसमर्थाय नम: ।" यह बापूजीके कार्यके आद्य और प्रमुख जाप जो शुरवातसेही अपने गुरुवारके उपासना का एक अंग है । कलीयुग में मतिभ्रष्ट जीवको उचित मार्गपर लानेवाले साईनाथ है । खेदजनस स्थिती या जीवनकी प्रतिकुलतासे व्यथित होकर मानव गलत राहपर भटक जाता है । परमेश्वर का प्यार और क्रिपा प्राप्त कर लेना तो दूर वह दु:खके चक्रव्यूहमे घुमता रहता है । बाहर कैसे निकले यह ना समझकर, पिछे हटें तो पानी सर के बल निकल चूका होता है, अब मार्ग नही ऐसी अवस्था होती है । लेकीन एसे परिस्थितीमें भक्तिमार्गपर डाला हूआ एक कदम...... सिर्फ एक कदम भी उसको दु:ख की खाईसे निकालकर उचित मार्ग का दिशादर्शन करवा दे सकता है । श्रीसाईमहिमा में बापू आगे कहते है - श्रीसाईसच्चरित भक्तिका यह मार्ग हमें समझा देता है । भक्ति कैसे करें यह ग्रंथ हमे बताता तो है लेकीन यह बताते वक्त अपनी भक्ति बढाकर अधिक दृढभी करवाता है । भक्तिमार्गमे अपना कदम अधिक मजबूत करता है । भक्ति निर्धारीत बनाता है ।
बापूजीका हिंदी प्रवचन श्रीसाईसच्चरितपर आधारीत होता है । उन्होने शुरु की हूई पंचशील इम्तेहानभी श्रीसाईसच्चरितपर अधारीत है । यह सब वे केवल हमारेलीये, अपना भक्तिमार्गका सफर आसान हो , सुखकर तथा परिपूर्ण हो, इस इम्तेहान के कारण हम जो पढाई और साईभक्तोंका चिंतन करते है इसमेसे हमें रोजके जीवनशैलीमें मार्गदर्शक तत्वकी प्राप्ती हो और उनका आचरण हम करे इस हेतूसेही करते है ।
श्रीसाईसच्चरितपर आधारित यह फोरम हरेक श्रध्दावानको श्रीसाईनाथकी सीख समझ लेनेके लीये वह अपने जींदगीमे आचरीत करने के लीये सचमुच उपयुक्त होगी, यह मै निश्चित रुपसे कह सकता हू । इस फोरमद्वारा हमारे सामने श्रीसाईसच्चरितके संबंधमें आनेवाला विषय, एखाद कथा ( प्रसंग ) रखी जाएगी । सदस्य उस विषयमें अपना मत अंग्रेजी, हिंन्दी या मराठी इनमेसे कीसीभी भाषामें व्यक्त कर सकते है । यह संवाद इस ग्रंथकी अनेक खुबीया खुलकर दिखाएगी ओर वह अधिक आसान करके उसके गहराईतक पहूंचनेमे मद्द्त करेगी । वैसेभी साईनाथजीने हमे बचन दियाही है
मग जो गाई वाडेकोडे । माझे चरित्र माझे पवाडे । तयाच्या मी मागेपुढे । चोहीकडे उभाची । (" जो मेरे चरित्र और कृत्यों का श्रध्दापूर्वक गायन करेगा उसकी मै हर प्रकार से सदैव सहायता करुंगा ।")
तो अब ‘ साई द गायडिंग स्पिरीट’ इस फोरमका शुभारंभ करते हूऐ मै बताना चाहता हू की मेरे सद्गुरुजीने श्रीअनिरुध्द बापूजीने ( अनिरुध्दसिंह ) लीखा हूआ ‘श्री साईमहिमा ’ यह स्तोत्र सारे श्रध्दावानोंको मार्गदर्शक और अश्वासक हो जाए और यह निश्चित है ।
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ज्यादातर समय हम अपनें रोज के काममें इतने व्यस्त होते है की अपनें त्रमें और अपने आजू-बाजू कीं परिस्थिती में क्या बदलाव आ रहे है, उसकी भनक उसका एहसास करने की, दखल लेनें की भी फुर्सत हमें नही है। हम अगर हमारे आजूबाजू की परिस्थिती से भलेही सजग न हो, तो भी बापू उनके श्रद्धावान दोस्तो के लिए हमेशा वास्तव का ध्यान रखकर सजग रहते है। इसी सजगता सें बापू ने जुलै २०१२ में खुद दो सेमीनार कंडक्ट किए। जिसके पिछे थें उनके बहोत-बहोत परिश्रम और अभ्यास।
इस सहस्त्रककें पहलें बारा सालों में अनेक छेत्रों में अनेक बदलाव आए। शाश्वत मानवी मूल्यों का सँभालते समय, हुए हुए बदालवें से और बदलाव की गती के साथ हम खुद को जुडा नही पाए। आनेवाले समय में शायद हमारा टिकना संभव नही हो पाएगा, हम कही-पर गल जाएँगे, और इसीलिए बदलते समय की पदचिन्हों को पहचानकर बापूने गिने चुने सिर्फ सत्तरा लोगों का सेमीनार लिया। तीस घंटो के इस सेमीनार मे बापूने अनेकोंनेक विषयों की पहचान कराकें दी। अटेंशन इकॉनॉमी "जुगाड” क्लाऊड कॉम्प्युटिंग जैसे अनेक विषयोंसे अनभिज्ञ थे। "जुगाड’ के बारे मे बोलते समय बापू ने कहा "आगे आनेवाले समयमें सहीसलामत बचकें निकलना है तो "जुगाड’ स्ट्रेटजी यह एकमेव ही उपाय होगा। "जुगाड” स्ट्रेटजी ही जीवन का हर एक अंग छाकर रहेगी।
"राममेहरसिंग” की पोल्ट्रीफार्म पर इलेक्ट्रीसीटी तो उपलब्ध थी, लेकीन हमेशा की गारंटी नही थी। लोडशेडींग बहुत ही डरावना होता जा रहा था। घंटो-घंटो तक बिजली न होने के कारण पोल्ट्रीफार्म चलाना मुश्किल बनता जा रहा था। एक बाजू में यह प्रश्न, और दुसरे बाजूमें जनरेटरके डीजल का बढता हुआ खर्च। बिजली का बिल महिना लगभग ४५,०००/- और साथ में डीजल का खर्चा महिना १,२०,०००/- रु.
सवाल तो कठीन था। लेकिन पहले जमाने के सैनिक राममेहरसिंग अपने सामने खडे इस कठिण प्रश्न से डगमगाए नही, बिथर नही गए। हरियाना के झज्जल गावके राममेहरसिंगने बहोत ही शांतीसे, पूर्ण विचारों के बाद उनके मन को जो भाया हुआ, सीधा और आसान, लेकीन मेहनतका ऐसा कुछ उपाय ढूँढा की आगे जाकर सबको वह मार्गदर्शक बन गया। यह उपाय करने के बाद राममेहरसिंग का डिझेल खर्च अब है, सिर्फ रु. ६०,०००/- और अब उन्होने दक्षिण हरियाना बिजली वितरण निगमसे बिजली लेना भी बंद कर दिया। आज वह कम से कम महिना रु १,००,०००/- की बचत कर रहे है। लेकिन यह उन्होने कैसा मुमकीन किया?
राममेहर सिंग उनके फार्म पर बडी मात्रा में उपलब्ध रहने वाला पोल्ट्री वेस्ट का उपयोग करके बायोगॆस पावर प्लांट लगाने के बाद, उनके पास खुद इस पद्धती का उपयोग करके खुद ही निर्माण की गयी बिजली का प्रमाण इतना है, की दिनमें किसी भी प्रकार के लोडशेडिंग के बावजूद, कमसे कम १४ घंटो तक बिजली का वह इस्तमाल कर रहे है। उसके साथ ही पोल्ट्री वेस्ट के उपयोग से पावर प्लांट से निकलने वाली स्लरी (मैला) जो अत्यंत पुष्टिकर होने की वजह से "रवाद” के तौर पर खेतों मे इस्तमाल हो रहा है। इस "रवाद” मे नायट्रोजन, पोटॆशिअम और फॊस्फरस जैसे पुश्टिकर द्रव्य बडी मात्रा में उपलब्ध होते है, यह इस प्रयोग के बाद प्रमाणित किया गया है।ऐसी है यह पोल्ट्री वेस्ट से इलेक्ट्रीकल पावर जनरेशन की (बिजली निर्माण की) राममेहरसिंग की अनोखी संकल्पना।
राममेहरसिंग की यह नई संकल्पना सिर्फ प्रतिकुल परिस्थिती का मौका उठाते हुए "वेस्ट” को ही महत्त्वपूर्ण साधनसंपत्ती मे रुपांतरीत किया। उन्होने खुद की समस्या पर एक सस्ता और विश्र्वास पैदा करनेवाला उपाय, निकाला ही, लेकीन हरियाना कें सभी पोल्ट्रीफार्म के मालिकों को एक अनोखा मार्ग दिखाया। राममेहरसिंग के अनोखी खोज पर हरियाना सरकार ने भी उचित ध्यान दिया। और इस प्रकार से बिजली निर्माण करने की जिनकी इच्छा थी, ऐसे पोल्ट्रीफार्म के मालिकों को आर्थिक सहायता की सुविधा उपलब्ध की।
आज की भाषा में अगर प्रचलित शब्द का उपयोग करना हो तो ऐसा पूछना पडेगा की, राममेहरसिंग ने किस तरह से ये "जुगाड’ किया?
"जुगाड’ हम भारतीय "जुगाड’ इस शब्द का उपयोग बहोत ही सहजता पूर्वक रोज के जीवन में इस्तमाल करते है। कोई काम या कुच करनेवाली चीजें अगर सहजतासें होती नही या उसका तालमेल नही हो पाता तो हम लोग झट से, हमे जो शब्द अभिप्रेत है "कैसे भी करके ये काम निपटना है।’ उसके लिए किस मार्ग का अनुसरण किया जाए, बहोत बार अनेक लोगो को ऐसा करने में कोई भी मार्ग फिर "निषिद्ध’ (इस्तमाल नही करना) नही होता, और इस रायज अर्थ के कारण, बहोत से लोग इसका गलत ही इस्तमाल करते है।
... और फिर इधरही प्रश्न उपस्थित होता है की जुगाड’ याने की क्या? आजके मॅनेजमेंट गुरुओंको और कंपनीयों के C.E.O.'s को इस शब्द का किसी भी हालत में यही अर्थ रायज है क्या? उनकी भी संकल्पना ऐसीही है क्या? बिलकुल नही। क्योंकी अगर आजकी जानलेवा स्पर्धा के युग में अगर आपको टिके रहना है तो अपने लिमीट से कुछ जादा देना चाहिए। क्योंकी अगर आजकी जानलेवा स्पर्धा के युग मे अगर आपको टिके रहना है, तो अपने लिमिट से कुछ जादा देना चाहिए। और इसका पुरा विश्वास यकीन में बदल सकता इसकी गॆरेन्टी आज के मेनेजमेंट जगत का "जुगाड’यह एक स्वयंसिद्ध मंत्र बन गया है। जो एक शास्त्रीय तंत्र है। साथ में एक कला भी है। जिसका पुरी तरह से विश्वास आजके मेनेजमेंट जगत को हो रहा है।
"जुगाड’ इस मेनेजमेंट मंत्र की या तंत्र की आसान और समझनेवाली व्याख्या अगर करनी हो तो ऐसा कह सकते है, की "जुगाड’ याने की मानवकें सूझबूझ से और हुशारीकी सहाय्यतासे, उपलब्ध साधनोसे प्रतिकूल परिस्थितीपर मात देकर, सबके लिए फायदेमंद साबित होनेवाला आसान, समझनेवाला और किफायती उपाय या समझोता निकालने की एक योजनाबद्ध तत्त्वप्रणाली।"जुगाड के लिए सवार होकर चॅलेंज स्वीकारने की मनकी धारणा होनी चाहिए। साथी ही जरुरी होता है हमेशा उपयोग में आनेवाली वस्तू आ नए वस्तू की तरह इस्तमाल करना, हुशारी और तुरन्त निर्णय लेनेकी क्षमता, कल्पकता, कठीन परिस्थिती में भी मन को शांर रखने की ताकद और साथही परिस्थिती के अनुसार बदल करने के विचारपूर्वक कृती करके किफायतीशिर मार्गसे अपेक्षित या अपेक्षासे जादा फलप्राप्ती या फलनिश्पत्ती कर सकते है। शायद यह फलनिष्पती कभी "कम खर्चा और जादा फायदा" इस स्वरूप मे होगी, या कभी "कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा काम स्वरूप में हो सकती है। इन दो विभिन्न प्रसंगो मे वस्तू का या सेव का दर्जा या गुणवत्ता किसी भी प्रकारसे गिरती नही या, उसको गिराया जाता भी नही। ऐसी अनोखी मॅनेजमेंट तंत्र का उगम भारत में हुआ है यह सुनकर अनेक लोगोंकी भौं उंची हो सकती है। लेकीन आज उसके उपयोग का विशिष्ठ ऐसा एक शास्त्र विकसित किया गया है, यह पक्का है।
’जुगाड’ यह शब्द ’जुग्गड’ इस हिंदी / पंजाबी भाषा से आया है । पंजाब के ग्रामीण एरिया मे परिवहन का मार्ग रहनेवाला, अलग अलग पार्ट जोडकर बनाया गया, लोकप्रिय और कम खर्चाऊ वाहन याने की ’जूग्गड’ । यह वाहन प्रवासी (यात्रा करनेवाले) और सामान ले जा करनेके लिये समानरूपसे इस्तमाल किया जाता है । इसका आगेका भाग रहता है सायकल जैसा ; और पिछवाडा रहता है सायकल रिक्षा सरेखा या फ़िर जीप के पिछेका हिस्सा होता है वैसा । कम से कम लगभग ६० लोग एक ही समय इसमे यात्रा कर सकते है । कभी कभी तो इससे ज्यादा भी लोग यात्रा करते है । लेकिन बहुत कम समय यह वाहन जिस डिजल इंजिन पर चलता है, वह देखा जाए तो खेत मे इरिगेशन पंप चलाने के लिये इस्तमाल करते थे । इस वाहनों की आरटीओ की मान्यता प्राप्त नही है, तो भी आज भारत के ग्रामीण क्षेत्र मे बडी मात्रा मे इस वाहन का उपयोग किया जाता है। आज पुराने डिजल इंजिन की जगह मोटर सायकल के इंजिन ने ली है ।
उपलब्ध साधनोंका उचित उपयोग करके कल्पकता से और अच्छी या जिसमे कुछ नया हो ऐसी चीज बनाना याने की ’जुगाड’ ; जो करना आवश्यक है वह कम समय कम पैसे मे करना याने की ’जुगाड’ । ’सर्व्हायव्हल ऒफ़ द फ़िटेस्ट’ याने की जो सक्षम है | उसका की काल ने चक्र में निभाव लगता है, वही टिकता है। और इसे प्रत्यक्ष रुप में लाना याने की "जुगाड’"।
इस सहस्त्रककें पहिले बारा सालोमेंही हमने अनेक क्षेत्रो में अनेक स्तरोपर प्रचंड बदल होते हुए देखे है। इन बदलोंका स्पीड भी वैसे ही प्रचंड है, और यह स्पीड पकडते-पकडते बहोतोकी तो जान निकलती है। लेकीन शाश्वत मानवी मूल्योंका अगर हमने जतन नही किया तो कालचक्र की गतीमें हम टिक नही सकेंगे। हम बिखर सकते है, हमारा नाश हो सकता और इसिलिए कालचक्र गती, चरण, पहचानकर प्रत्यक्षके कार्यकारी संपादक डॉ.अनिरुद्ध जोशी इन्होने कुछ गिनेचुने सिर्फ सतरा लोगोंका सेमिनार लिया। जुलै कें लगभग दो हप्ते। हरएक व्यक्ति अलग-अलग क्षेत्रसे निगडीत थी। कोई डॉक्टर, कोई इंजिनिअर, तो कोई वकील, कोई बिझनेसमन तो कोई कॉर्पोरेट सेक्टर में उच्चपदस्थ स्वरूप मे काम करनेवाले मॅनेजमेंट एक्सपर्ट थे। तो कोई प्रायव्हेट कंपनीमें काम करनेवाले तो कुछ सेवाभावी संस्थासे जुडे हुए। इस तीस (३०) घंटो की सेमीनारमे डॉ.अनिरुद्धजीने अनेकविध विषयोके बारे में पहचान करा दी। अर्टेशन इकॉनॉमी, जुगाड, क्लाऊड कॉम्युटिंग जैसे अनेक विषयोंसे बहोतसे अनजाने थे। जुगाड के बारे में बोलते समय डॉ. अनिरुद्धजीने कहा, आनेवाले काल में यशस्वी होना है, तैरके जाना है, तो जुगाड स्ट्रेटजी याने की "जुगाड व्युहतंत्र" यह एकमेव उपायही होगा और यही जुगाड व्यूहतंत्र या व्यूहरचना जीवनके हर एक अंग को छा लेगी; साथही हर एक के जीवन का महत्वपूर्ण भाग बनकर उसे सक्षम बनाएगी।
और इसिलिए इस "जुगाड" की जरुरत आज कॉर्पोरेट जगत को भी प्रतीत हो रही है।
आज जग में आर्थिक मंदी का माहोल है। बडी-बडी बहुराष्ट्रीय कंपनीभी अपना खर्चा कैसे कम हो सकता है इसपर लक्ष केंद्रीत कर रही है। अनेक कंपनीयो को उनका रिसर्च और डेव्हलपमेंटपर होनेवाला खर्चा अब भारी पड रहा है। आज की तारीख में प्रचलित "सिक्स सिग्मा’" पद्धती नई परिस्थितीसे निपटने के लिए कम पड रही है। साथ ही इस खर्चेसे नया कुछ हात मे आएगा इसकी कोई गॅरेंटी नही और आया तो भी कभी और कितने समय के बाद, यह भी प्रश्न उपस्थित होता है। मार्केट में तो जानलेवा स्पर्धा है। ऐसे समय में अनेक मॅनेजमेंटगुरुज और बहुराष्ट्रीय कंपनीयोके सीईओज अपना हमेशा का ढाँचा, उसका दृष्टिकोन बदलके भारत मे उद्ग्म पारा "जुगाड" तंत्रका उपयोग हमेशा के व्यवहार में करने लगे है और उसका उत्तम उदाहरण याने की जनरल इलेक्ट्रीक और प्रॉक्टर अॅंड गँबल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनीया!
जुगाड इनोव्हेशन इस किताब में किताब का यश प्रथित लेखक मँनेजमेंट तज्ञ नविराजाऊ, जयदीप प्रभू और सिमोनी आहूजा को जाता है। जिन्होनें "जुगाड’" की छ:(६) मूलभूत तत्व पेश किए है। जिस किसको अपने क्षेत्र में अगर यशस्वी होने की इच्छा आकांक्षा है, उस हर व्यक्तिको इस उत्कृष्ट, किताब कों पढना होगा। किताब में लिखे हुए कुछ तत्व इसप्रकार है;
१) संकट या प्रतिकूल परिस्थितीकोही चान्स मानना।
२) कमसे कम साधानसंपत्तीका उपयोग करके जादासे जादा अपनी कार्यकक्षमता बढाना।
३) विचारप्रणाली और कृती की परिवर्तनियता याने की ढॉंचे मे बंद विचार प्रणाली छोडकर उदारतावादी होना, अर्थात नयापन स्वीकारने केलिए आवश्यक होनेवाली मन की आझादी।
४) प्रश्नों के उपाय या सिंपल साधा रास्ता जो आसान हो।
५) अनदेखे घटकोंका विचार करना- जिनका पुरी तरह से समावेश करना।
६) मन को भाता है वही करना ( अनेक-अनेक पर्यायों का विचार करने के बाद)
इन सारे तत्वोका/मुद्दोका एकत्रित विचार करके खोजा गया उपाय मतलब "जुगाड"" तंत्र का उचित उपयोग। कोईभी एक तत्त्व अगर दुर्लक्षित हो गया, तो उसे "जुगाड" कहना मुश्किल होगा; वह "जुगाड" होही नही सकता; और इसिलिए "जुगाड" यह सायन्स (शास्त्र) और आर्ट (कला) का सुंदर संगम है।राममेहरसिंग के इस अभिनव प्रयोग को सब बाजूसे सोचने के बाद ऐसा उअकीन से कह सकते है की "जुगाड" की मूलभूत तत्त्वों को "जुगाड" के जडसे सभी नियमोंका परिपालन किया।
जडसे सभी नियमोंका पालन करने से, आज से कभी न सोचा हुआ उपाय अपने आप सामने आ सकता है। आसाम के मोरीगाव में रहनेवाले कनकदासने सहजतासें इन सारे तत्त्वोंका सुंदर उपयोग करके अपने प्रश्नों का सहज सुंदर उपाय ढूंढा। कामपर जानेके लिए कनकदासजीको हमेशा सायकल से यात्रा करनी पडती और वहाभी गड्डों भरे रास्तोसें। रास्ते ठिकठाक करना यह उनका काम नही था और होता तो भी उनकी कुवत से बाहर था। और ऐसा विचार करना भी निरर्थक था। पिठ कें दर्द से कनकदासजी परेशान थे। लेकीन उन्होने हार न मानी। इस गड्डोभदे, पथ्तरोंसी भरी राहकाही का मैं किस तरह उपयोग कर सकता हू इन विचारोनें उन्हे घेर लिया। और इसमेसे ही खोज हुई एक अनोखे सायकल की। कनकदासजीनें अपनें सायकल में कुछ बदलाव किए उसके बाद जब सायकल गड्डोंसे जाती है, तब उसके अगले पैह्हीये के "शॉक एब्सॉर्बर्स” उर्जा उत्सर्जित करते है, जिसकी वजह से यह उर्जा पिछले पहियें को गती देनेके लिए इस्तमाल की जाती है। याने की सायकल जितनी बार खड्डोंसे जाकर धक्के खाएगी, उतने ही प्रमाण में वह सायकल सहजतासें जादा स्पीड पकडेगी और चला नेवाले कें परिश्रम कम हो जाएगें, और चलानेवाले को चलाते समय गड्डोंकी तकलीफ शॉक एब्सॉर्बर्स की वजह से कम हो जाएगी! यहापर कनकदासजीने संकटकोही मौका माना। कमसें कम उपकरण इस्तमाल करके वह भी किफायतशीर। उन्होनें खोजा हुआ उपाय सर्वसामान्य आदमी इस्तमाल कर सकता था और यह सब करतें समय उनके विचारोंमें और कृतीमे लचीकता थी। ढाँचे के अंदर विचार करने की प्रणाली को उन्होने ठुकराया; और आखिर में ऐसा कह सकते है की अनेक पर्यायोंका विचार करके आखिर में उनके मन को जो भाया वही उन्होंने कीया।
एसी यह अभिनव सायकल “इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ मॅनेजमेंट” अहमदाबाद
कें प्रोफेसर श्री. गुप्ताजी के नजरोंमे आई। और उन्होने कनकदासजीको इस खोज का पेटंट दिलाने मे मे मदत की। आज एम.आय.टी के विद्यार्थी भी इस खोज का इस्तमाल स्वयंचलित वाहन मे किस प्रकार कर सकते है इसका शास्त्रके आधारपर अभ्यास कर रहे है। जिसकी वजह से बडे पैमाने पर इंधन की बचत होकर प्रदूषण का स्तर भी कम हो।लेकीन कनकदासजी यह एक ही स्टॅंड अलोन’ (एकमेव) उदाहरण नही है; भारत मे ऐसे अनेक उदाहरण मिल सकते है। चेंगलपट्टू(तामिलनाडू) के बालरोगतज्ञ डॉ. सत्या जगन्नथ को ग्रामीण क्षेत्र में आवश्यक इन्क्यूबेटर्स का प्रश्न सता रहा था। उस समय सब जगह उपलब्ध होनेवाली इन्क्यूबेटर्स की किमत एक लाख के आसपास थी। ग्रामीन क्षेत्र कें सर्वसामान्य जरुरत मंदों को इसकी सेवा पुसाना मुमकीन नही था। और यह ग्रामीण क्षेत्र में बालमृत्यू होने का एक प्रमुख कारण था। डॉ. सत्या जगन्नाथनकी जिज्ञासा उन्हे शांती से बैठने दे नही रही थी। गरीब जरुरत मंदोकी आत्मीयता, अपनेपनसे, डॉ. सत्या जगन्नाथनने उपयोग में सिंप्पल और "लो-कॉस्ट’ (एकदम सस्ता) "इन्फन्ट वॉर्मर ढूंढ निकाला। उसमेंही फेरफार करके उन्होने एक अनोखे इन्क्यूबेटर की निर्मिती की। जिसकी किमत १५,०००/- तक थी। इस खोज की वजह से आज भारत के ग्रामीण क्षेत्र को सतानेवाला, परेशानकरनेवाला बहोत बडा प्रश्न डॉ. सत्या जगनाथनने हल किया। उसके लिए उन्होने पुरी तरह से अपरंपारिक (अनकन्व्हेन्श्नल) मार्ग का उपयोग किया। लीक के बाहर जाकर खुले मनसे विचार करने की क्षमता उनमे थी।
आज भारतीय कॉर्पोरेट विश्वने भी इस जुगाड तंत्र का उपयोग किया है और उसी का मूर्तिमान उदाहरण याने की "टाटा नॅनो” कार|
आज की घडी मे टाटा नॅनो यह दुनिया की सबसे सस्ती कार है। मोटारसायकल या स्कूओटर से जानेवाली चार लोगों की पुरी फॅमिली, यह भारत में सभी शहरों मे हमेशा दिखनेवाला चित्र था। ऐसे फॅमिलीज को पुसाना ऐसी आरामदेनेवाली, सुरक्षित, साथ में दो पैसो को अर्लटरनेट ऑप्शन साबित होनेवाली कार सबको मिले ऐसी इच्छा उस समय टाटा ग्रुप के चेअरमन रतन टाटा की थी। "जुगाड" तंत्र का उपयोग करके टाटा मोटर्स ने ही यह सच न होनेवाली चिज प्रत्यक्षस्वरूप में लाई। टाटा मोटर्सने "फ्रूगल इंजिनिअरिंग याने की काटछाट कृती और अभियांत्रिकी का बहोतही अच्छा मेल, संगम बनाकर उनका उद्दिष्ट सफल किया और यही कित्ता आगे टाटा मोटर्स के एम.डी. रविकांत ने चलाया। जब पश्चिम बंगाल के सिंगूर में सामाजिक और राजकिय कारणोंके कारण खडा करकें उत्पादन चालू करना मुमकीन न हुआ, तब श्री. रविकांतने सभी पर्यायोंका एकत्रित विचार करके खुद के अंतर्मन का आवाज सुनकर फँक्टरी खडी करके उत्पादन चालू होने के लिए लगनेवाला अठ्ठाईस महिनोंका समय श्री. रविकांतने चौदा महिनोंपर लाया। श्री. रविकांतने "जुगाड’’ के सारे तत्व जैसे के तैसे एक सही तरी के से इस्तमाल में लाए थे|
भारत के कॉर्पोरेट विश्र्व के ऐसे एक नही अनेक किस्से हम देख सकते है।
क्योंकी "जुगाड” के लिए आवश्यक रहनेवाले सारे गुण विचारों की बैठक ही आजूबाजूकें प्रतिकूल परिस्थितीकीं वजहसें भारतीय जनमानसकें मनोवृत्तीमें ही है। सिर्फ उसे एक विशिष्ठ पद्धतीसे इस्तमाल करने की जरुरत है। भारत के सभी शहरों में दिखनेवाली "शेअर रिक्षाकी” पद्धत "जुगाड” नही तो क्या है? बैठनेवाले सभीयो का फायदा, उनकों चाहिए वैसी टॅक्सी और रिक्षाचालकों को भी और ज्यादा उत्पादन ! इंधन की बचत, जिससें कम होनेवाला प्रदूषण और साथही परिवहनपर पडनेवाला तनाव भी कम। अब इस शेअरींग पद्धतीकों शासकीय यंत्रणाकी भी मान्यता प्राप्त होने लगी है। बहुराष्ट्रीय कंपनीयों का उदाहरण दिया जाए तो जनरल इलेक्ट्रिक (जीई) इस कंपनीका दे सकते है। "जीई” का हमेशा इस्तमाल में आनेवाला महँगा और वजन में भी भारी ईसीजी मशीन भारत मॆं इस्तेमाल में इतना सही नही था। वह ईसीजी मशीन उसके ज्यादा वजनके कारण दुसरी जगह ले जाना मुमकीन न था; क्योंकी उसे वहा से ले जानाजादा कष्ट निर्माण करनेवाला था । साथही भारत जैसे देश में अनेक जगहों पर लोडशेडिंग (बीजली का भारनियमन) की वजह से ऐसा बिजली पर चलने वाला मशीन किसी काम का न था । ऐसे समय मे जीई (इंडीया) के इंजिनियर्सने यह चॅलेंज स्विकारकर कामयाब होकर एक नए इसीजी मशीन की रचना की । हमेशा के उपयोग मे चलने वाली मशीन की तुलना मे इस ’मॅक ४०’ मशीन का वजन एक पंचमांश था और किंमत एक दशांश थी । वजन से हलका होने के कारण उसे कही भी लेकर जाना डॉक्टरों के लिये बहुत आसान हो गया । और साथही बॅटरी पर चलने के कारण याने की बिजली की जरूरत न होने के कारण, गाँव गाँव में यह मशीन इस्तमाल करना बहुत ही आसान हो रहा था । जीई हेल्थ केअर (इंडीया) के प्रेसिडेंट और सीईओ टेरी ब्रेसनहॅम इनके मत के अनुसार "तुम्हारी खोज यह सिर्फ़ नए तंत्रज्ञान पर डिपेंड न रहकर, यह खोज एक व्यावसायिक आदर्श बननी चाहिए, जिसकी वजहसे नए विकसित तंत्रज्ञान जादा से जादा लोगों फ़सानेमे आ सके और उनतक पहुँचाने वाले हो। और इस नये इसीजी मशीन ने ठीक यही करके दिखाया ।
एक बडे बहुराष्ट्रीय कंपनीने "जुगाड" की छ: की छ: तत्वों की सही तरीकेसे उपयोग में लाने के लिये "जीई" यह एक उत्तम, सही उदाहरण है । आज भारत में "जीई" का राजस्व, लगान कम से कम चौदा हजार पाचसौ करोड रुपये इतना है । इस पर हम अंदाजा लगा सकते है की "जीई" के सिर्फ़ भारत के व्यवसाय की व्याप्ति कितनी होगी ।
किसी भी कॉर्पोरेट कंपनी में ऐसा कौनसा भी नया उत्पादन अगर बनाना हो तो उसकी शुरुवात होती है अपना ग्राहक फ़िक्स करने से फ़िर उस ग्राहक की आवश्यकता और जरुरते देखी जाती है । यहॉं पर झटसे आँखोंके सामने आती है, ’नोकिया’ यह बहुराष्ट्रिय मोबाईल कंपनी का ’नोकिया ११०० ’ इस मोबाईल सेट का उदाहरण । जब उनके भारतके, आफ़्रिकाके और ब्राझील के "एथनोग्राफ़र्स" ने उस उस देश के संभाव्य ग्राहकक्षेत्र की जानकारी इकठठा की , तो मोबाईल जैसा नया उत्पादन बाजारमे लाने की तैयारी करने वाली किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए निराशा जनक ही थी । अस्वच्छतासे भरी झोपडपट्टी मे रहने वाले, अशिक्षितों का भरपूर प्रमाण होनेवाले बाजारमें उपलब्ध होनेवाला दुसरा कौनसा भी मोबाईल जेब को न परवडने वाला महँगा और उस मोबाईल की अतिप्रगत फ़ीचर्स समझने मे कठीन लगने वाली गरीब मेहनत करने वाले और मजदूर वर्ग के लोग । जो वहाँ पे रहते थे और काम करते थे वहाँ पर धुल का जादा प्रमाण और बिजली की कमी होने के कारण उस समय जो सब जगह उपल्ब्ध मोबाईल्स थे , वो इस माहौल मे जादा समय टिक नही पाते ।
यह सब जानकारी हाथ में आते ही नोकियाके आविष्कार कर्ते और तंत्रज्ञ काम मे लग गये.... इस वर्ग को उनकी समस्याओं पर मात करनेवाला मोबाईल उपलब्ध करके देना ही हैयह चॅलेंज उन्होंने स्वीकार लिया ।
........ और साकार हुआ नोकिया का क्रांतीकारी ’नोकिया - ११००’ यह मोबाईल । धुँधले माहौल में भी भारी पडनेवाला मजबूत डिझाईन, जिसमे यह फ़ोन इस्तमाल करनेवाले को कोई कठिनाई न आए इसिलिए अतिप्रगत एक भी फ़िचर नही दिए गए थे.... सिर्फ़ कॉल लेना - करना, साथ ही एसएमएस की सुविधा... बस... । साथमे इस रिसर्च करनेवालों के यह भी ध्यान मे आया की बहुत बार इनकी बस्ती मे मोबाईल रखनेवाले लोग मोबाईल स्क्रीन का उपयोग अंधेरेमे उजाले के लिये करते है । तभी उन्होंने इन मोबाईल मे ही टॉर्च का फ़ीचर भी समाविष्ट किया और इस अनोखे डिझाईन की उनको पुश्ती भी मिल गई । यह फ़ोन ग्राहको मे इतनी भारी मात्रा मे लोकप्रिय हो गया की पुछो मत । सिर्फ़ इन गरीब मेहनती बस्तियों मे ही नही तो उपयोग मे आसान होने के कारण मध्यमवर्ग में भी यह अच्छी तरह से लोकप्रिय हो गया की पुछो मत । सिर्फ़ इन गरीब मेहनती बस्तीयोंमे ही नही, तो उपयोग मे आसान होने के कारण, मध्यमवर्गमे भी यह अच्छी तरह से लोकप्रिय हो गया । इसके सिवाय आकस्मिक वह और एक वर्ग में लोकप्रिय हो गया, जो थे आशिया खंड के ट्रक ड्रायव्हर्स ; जिन्हे अगर रात्री के समय ट्रक मे कुछ फ़ॉल्ट आ गया तो उसे दुरुस्त करने के लिये लाईट की जरुरत के कारण उन्होंने भी इस फ़ोन को उठा लिया । यह फ़ोन इतना लोकप्रिय साबित हुआ की पूरे जग मे कम से कम २५ करोड के उपर सेटस् बिक गये । यह आज तक के किसी भी मोबाईल मॉडेल के बिक्री के लिये उच्चांक था ।
आज की घडी मे पहले कभी न महसूस हुई इतनी ’जुगाड’ की आवश्यकता अब समझ मे आ रही है । नए सहस्त्रक के स्वागत समय जग की संख्या छ: सो करोड थी; वही आज इस सहस्त्रक के पहिलेल्ही तप मे सातसौ करोड तक जा पहुँची है । जिसकी वजह से सची जगह खाना और धान साथही नैसर्गिक साधन संपत्ती की कमी बडे पैमाने पर महसूस हो रही है । जिसका परिणाम हर एक वस्तू की किमत पर हो रहा है । साथही किसी भी उत्पादन के समय लगनेवाला पानी और बिजली का प्रश्न भी डरावना रुप धारण कर रहा है। साथ में बाजार में होनेवाली स्पर्धा भी तीव्र होती जा रही है। ग्राहक भी अब चयनशील हो गया है, उसके पास भी खरीददारी के लिए अनेक पर्याय उपलब्ध है। जिसकी वजह से वस्तू की कॉलिटी बढाकर दाम कम रखनेकी जरुरत सबको महसूस हो रही है। .___ ऐसी परिस्थितीमे "जुगाड’" का मार्ग सबको अपनी और खीच रहा है। इशारा कर रहा है। आज के जगतकी तो यह जरुरत बन गई है।
गाव का गरीब मजदूर हो या खेती के साथ पशुपालन करनेवाला छोटा किसान हो या, शहरके कार्पोरेट विश्वकी जिम्मेदारी संभालनेवाला उच्च पद का अधिकारी हो; छोटेसे गाव का छोटासा धंदा करनेवाला हो या फिर देश का बडा उद्योगसमूह हो; मल्टिनॅशनल (बहुराष्ट्रीय) उद्योगसमूह हो या फेसबुक-गुगल जैसी जानकारी तंत्रज्ञानसें जुडी आयटी कंपनीया हो; सरकारी या आधी सरकारी (निमसरकारी)संस्था हो; हर एक को आनेवाले समयमें सक्षमतासें (सभी अॅंगल से) टिके रहने के लिए "जुगाड" का उपयोग महत्त्वपूर्न बन गया है;बल्कि; वह उनकी बुनियादी जरुरत बन गयी है। "जुगाड" का दृष्टिकोन (एप्रोच) न रखनें की वजहसें या ना स्वीकारनें के कारण अनेक कंपनीयोंकी या युरोपीय देशोकी क्या हालत हुई है, इसके अनेक दाखले or उदाहरण दिए जा सकते है।
आजुबाजूकी परिस्थितीसे "जुगाड’" तत्व की सहजतासें परिचित भारतीय समाजने, "पहले ही वह सावधानता’ यह श्री. समर्थ रामदास स्वामी कें उक्तीनुसार आगे आनेवाले समय के लिए "जुगाड’" तंत्र का उपयोग व्यापक स्तरपर पुरी तरहसें करना उनके लिए आसान होगा जिसमे किसीका भी अलग मत होने का कारण नही। लेकीन उसकी जरुरत के लिए जो है, जैसा है उससेही शुरुआत करने की और जो पाया है, साध्य किया है, उसपर संतुष्ट न रहकर "जुगाड’" का उपयोग करके प्रयास करते रहने की; फीर यशस्वी होने के लिए यह देखनी नही पडेगी, यश ही आपके पिछे आएगा।.. १०८% कीसी भी शक के सिवा!
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हरि ॐ
आर्थिक दहशतवाद
झूठे धन से क्या
तात्पर्य है ? सच्चा पैसा भविष्य में नहीं रहने वाला है, यह भीषण वास्तविकंता
कितने लोंगों को पता है ? मुद्रा के मूल अस्तित्व के बारे में
प्रश्न
डाँ. अनिरुध्द जोशी
ये रे ये रे पावसा
तुला देतो पैसा
पैसा झाला खोटा
पाऊस आला मोठा ।
यह गाना बचपन में
हर एक बच्चा प्रेमपूर्वक गाता रहता है । परंन्तु इस गाने का एक समीकरण समझ में नही
आता कि खोटे ( झुठे ) पैसों के चक्कर में पडकर बरसात क्यों जोरदार प्रतिसाद देती हैं
इतना ही नही बल्कि धीरे-धीरे मन में यह प्रश्न उठने लगता है कि आखिर खोटे पैसे का वास्तव
में क्या तात्पर्य है ? परंन्तु यह उलटा समीकरण वर्तमान में संपूर्ण संसार को आर्थिक स्थिती का प्रमुख
गणितीय सूत्र बन चुका है । इसका अहसास विगत तीन दशकों से, अनेक
तरीकों से, समाज शास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों को होने लगा है । खोटा पैसा ही सच्चा और सच्चा पैसा
भविष्य में रहेगा ही नही, यह भीषण वास्तविकता आज हममें से कितने
लोंगों को पता है । यहाँ पर मै काला पैसा, या सफेद पैसा की बात
नहीं करना चाहता हूँ । मेरे मन जो विचार चल रहा है वो उस मुद्रा के मूल अस्तित्व के
बारे मे है । वैश्वीकरण के युग में मानो पूरा संसार ही एक छोटे से गाँव में सिमट कर
रह गया है । और ऎसे समय में गरीब व असहाय राष्ट्र क्या अपना स्वतंत्र अस्तित्व रख सकेंगे
? क्या कम से कम आधे राष्ट्र भी शेब बच सकेंगें क्या,
यह एक गहन प्रश्न बन गया है । यद्यापि इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार
करने की आवश्यकता है फिर भी इसे नजरंदाज करना हमें सुविधाजनक लगता है । यह सबसे दुर्भाग्य
एवं भविष्य के लिये विनाशकारी बात है ।
वीसंवी शताब्दी के
पहले ५० वर्षो में हुये दो महायुध्दो के कारण तथा शीघ्रता से होने वाले वैज्ञानिक विकास
के फलस्वरुप संपूर्ण पृथ्वी का नक्सा ही बदल गया है । दूसरे महायुध्द के अपरिहार्य
परिणाम के फलस्वरुप इग्लैंड और जर्मनी की आर्थिक व वसाहतवादी सत्ता क्षीण हो गयी ।
अमेरिका व रशिया ये दोनों महाशक्तियां अधिकाधिक बलवान होने लगी । दूसरे अर्धशतक मे
सोव्हियत पुनियन में साम्यवादी क्रांती धीरे-धीरे विकृत होती-होती सिर्फ नाम भर के
शेष रह गयी है । तथा रशिया के घटक राष्ट्रों का विभाजन हो जाने से रशिया का वर्चश्व
ही समाप्त हो गया । इतना ही नही ब्लकि रशिया के घटक राष्ट्रों मे तथा चीन में भी वर्तमान
समय में भांडवल शाही का पुर्नजीवन हो रहा है । इन्हीं सब कारणों के चलते आज अमेरिका, संसार में एक बलशाली भांडवलशाही
राष्ट्र के रुप में, संपूर्ण संसार का बेबंद राजा बन गया है ।
महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी युध्द अमेरिका ने अपनी भूमी पर नही लडने के की कुशलता
दिखाने के कारण महायुध्दों के संहरक परिणाम व नुकसान अमेरिका को नही भोगने पडे ।
शस्त्रो का व्यापार
व आर्थिक दावपेंचों के कारण अमेरिका अधिकाधिक बलवान होता जा रहा है ।अमेरिका के आर्थिक
वसाहतवाद के पाँच प्रमुख उद्देश्य है--
१. अपना कोई भी प्रतिस्पर्धी उत्पन्न न होने देना
- इसके लिये युरोप, जपान, ब्राझील और भारत जैसे राष्ट्रों को अपने आर्थिक
नियंत्रण मे रखना अथवा परस्पर युध्द की धमकियों ( भारत-पाकिस्तान ) से ग्रासित रखने
की तरकीब करना ।
२ भारत व चीन का रशिया की तर्ज पर विभाजन करने की
चाल चलना ।
३ संयुक्त राष्ट्र संघटना ( UNO ) का उपयोग अपनी मनमानी
को कायदेशीर साबित करने के लिये करना ।
४ तेल उप्तादक राष्ट्रों को अपने नियंत्रण में रखकर
स्वत: के ओद्योगिक हितो को सुरक्षित रखना ।
५ ईराक पर लगायी गयी व्यापारिक बंदी के कारण ईराकी
नागरिकों को नानाप्रकार के कष्ट भोगने पडे । मूलरुप से समृध्द यह देश १९९० के बाद दरिद्री
होने लगा । ईराक का प्रतिव्यक्ति वार्षिक उत्पन्न ३५०० डालर्स था जो घटकर सन् २०००
में मात्र ४०० डालर रह गया था ।
अन्न की कमी को मिटाकर
भूख मरी को टालने के लिये बारम्बार याचना करने के बाद १९९६ में अपने पास पेट्रोल को
कम भाव में बेचकर उसके बदले में खाद्यपदार्थ व धान्य प्राप्त करने छूट ईराक को दी गयी
। U ICEF (United
Nations children's Fund ) के अंदाज के अनुसार युध्द प्रारम्भ होने के
पहले ही पाँच लाख ईराकी नागरिक क्षेपणास्त्रे तथा अन्न धान्यों की कमी के कारण मर चुके
थे । जिनमें से तीनलाख पाँच वर्ष से कम आयु वाले बच्चे थे । सक्षम क्रूर तो होते ही
है, परन्तु अमेरिका का क्रौर्य भी कम से कम उतना ही भयानक है,
ब्लकि उससे ज्यादा भयानक है ।
लडाई हमेशा दो राष्ट्रों
अथवा राष्ट्र समूहों के बीच होती है । परंतु अमेरिका ने दूसरे विश्वयुध्द के बाद सब
जगह वैज्ञानिक प्रगति के कारण होने वाले वैश्वीकरण को जिसतरह अपने फायदे के लिये लागू
किया उसके अनुसार किसी भी राष्ट्र का स्वतंत्र आर्थिक व सांस्कृतिक अस्तित्व ही शेष
न रहने देना ही अमेरिका का महत्वपूर्ण उद्देश्य है ।
वर्तमान में अमेरिका
का आर्थिक साम्राज्य प्रत्येक राष्ट्र में फैल चुका है । भूतकाल की वसाहतवाद की तुलना
में अमेरिका का यह नया आर्थिक साम्राज्यवाद प्रत्येक मानवी अस्मिता को क्षीण करने ही
वाला है । ध्यान में रहे कि, अमेरिका में ही आंतरराष्ट्रीय नाणे निधी, संयुक्त राष्ट्र संघटना, विश्व बँक और वैश्विक व्यापार
संघटना के मुख्य कार्यालय है । अमेरिका का शेअर बाजार आज अनेक देशों के बाजारों पर
अपना वर्चस्व बनाये हुये है । दूसरे महायुध्द के पहले सारे वित्तीय व्यवहार उस देश
तक ही सीमित रहते थे और अन्तरदेशीय व्यापार तथा बहुउद्देशीय बाजारों को एक सीमित सहकार्य
की ही संकल्पना हुआ करती थी । परंन्तु वर्तमान मे सभी देशों के आर्थिक प्रावाह का नियंत्रण
मानों एक ही जगह पर केन्द्रित हो चुका है । साधारणत: १९६५ से Trans
National अर्थात राष्ट्रातीत कंपनियां अधिकाधिक संख्या में आगे आने लगी
है । ऎसे राष्ट्रातीत कंपनियो को स्वीकारना विकासशील व गरीब राष्ट्रो की मजबूरी हो
जाती है । क्योंकि ऎसा न करने पर उनके उद्योंगों को आर्थिक सहायता कौन देगा ?
इन कंपनियों के पास अकूल संपत्ती होने के कारण वे किसी भी क्षेत्र में
व्यवस्थित चल रहे उद्योगो को बुरीहालत में लाकर उन्हें खरीद सकती है अथवा किसी भी नये
क्षेत्र में नया उद्योग शुरु कर सकती है और इसके फल स्वरुप तेजी से आर्थिक केन्द्रीकरण
हो सकता है ।
अर्थोप्तत्ती का
नया समीकरण- विगत पाँच दशकों में अमेरिका द्वारा लाये गये वैश्विक अर्थ व्यवहार में
बदलाव के कारण ७० टक्के देश लगातार बढ रहे और कभी भी न भर पाने वाले राष्ट्रीय कर्ज में डूब चुके है ।
सन् १९७० मे अमेरिका ने अधिकृत तरीके से अपनी राष्ट्रीय मुद्रा व्यवस्था में बदलाव
किया और U.S. फेडाल बँक ने राष्ट्रीय मुद्रा और सोना का परस्पर संबंध हमेशा के लिये समाप्त
कर दिया । फलस्वरुप अमेरिकी मुद्रा का उप्तादन "बँक के कर्ज " के नयी विषारी
प्रक्रिया के अनुसार होने लगा । यह नया विष अमेरिका के साथ व्यापारिक संबध रखने वाले
सभी देशों की मुद्राओं को कमजोर करने लगा और इसीलिये उन्हे भी अपनी-अपनी मुद्राओं में,
अमेरिका के नियमों से मिलते जुलते बदलाव करने पडे ।
फलस्वरुप अब अर्थ
का तात्पर्य राष्ट्रीय संपत्ति नही ब्लकि अर्थ का तात्पर्य कर्ज का समीकरण दृढ हो चुका
है । वर्तमान मे जब कोई राष्ट्र स्वत: की आर्थिक व्यवस्था का वैश्विकरण करना चाहता
है ( स्वत: की औद्योगिक प्रगती के लिये ) तब जो-जो मुद्रा नये तरीके से आती है, वो सब सिर्फ बँक के कर्ज
के रुप में ही मिलती है । एक बार इस अर्थव्यवस्था को स्वीकार कर लिया तो सोने की खानें,
औद्योगिक उप्तादन और राष्ट्रीय मेहनत इत्यादि अर्थोत्पादन के साधन बिल्कुल
रह ही नही जाते । इतना ही नही ब्लकि ग्राहको द्वारा बँका में जमा की गयी राशि भी अर्थोत्पादन
का साधन नही रह जाती । कामगारों की मेहनत और उप्तादन क्षमता सिर्फ बँको द्वारा
" निर्माण " किये गये भांडवल ( निधी ) का पुर्नवितरण करती है । जब बँक कर्ज
मंजूर करके कर्ज लेने वाले व्यक्ति के खाते में यह रकम कागजीस्वरुप मे जमा करती है
तभी वास्तव में मुद्रा उत्पन्न होती है और ठीक से समझ लो कि सिर्फ शून्य से और शून्य
से ही इस नवीन मुद्रा की निर्मिती होती है । इसका क्या अर्थ है- कर्ज मंजूर होने से
पहले यह अमुक रकम अस्तित्व में ही नही थी । परन्तु जब यह कर्ज ली गयी रकम खर्च की जाती
है तभी मुद्रा का खेल शुरु होता है, ऎसा माना जाता है ।
अब सवाल है कर्ज
वापस करने का । यह कर्ज जब उत्पादन क्षमता की मूल्य से लौटाया जाता है तब इस कर्ज द्वारा
निर्मित येन व डालर्स का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है । वास्तव में कर्ज लौटाने के
लिये उपयोग में लायी गयी रकम बँक मे रहती ही नही है । सच्चाई तो यह है कि यह कही भी
नही रहती है और चलन मे तो कतई ही नही रहती । ऎसा कर्ज चुकाने के लिये उपयोग मे लायी
रकम व्यवहार मे चल रही मुद्रा को उस रकम के मूल्य के बराबर कम कर देती है । अर्थात
जब सुस्थती रहती है तब लोग अपना ॠण चुकाते है और उतनी ही यात्रा में चलन में रहने वाले
पैसे को कम कर देते है । ऎसी परिस्थिती में सहजता से ही आर्थिक घाटा निर्माण होता है
और उसी की तुलना में सभी का हिस्सा भी बन जाता है । और इसमे ही अगले प्रश्नों का उत्तर
निश्चित है-
१ कामगारों की संख्या लगातार कम क्यो करनी पड रही
है ?
२ मेहनत की तुलना में मजदुरी की मात्रा हमेशा कम
होती है ?
वर्तमान आर्थिक व्यवस्था
में मुद्रा की भरपाई करने के लिये सिर्फ एक ही उपाय शेष बचता है -- " कर्ज
"। इसके कारण विकासशील देशों को ऋणमुक्त होने के लिये बारम्बार कर्ज लेना पडता
है । लगातार बढ रहे व्याज के कारण आवश्यक मात्रा मे मुद्रा व्यवहार में नही सकती और
जब कर्ज चुकाया जाता है तब अस्थायी रुप से निर्माण हुयी रकम आर्थिक व्यवस्था से निकल
जाती है । परन्तु उसपर लगाये गये व्याज की रकम की भरपाई ने होने के कारण एक बडी समस्या
खडी हो जाती है । व्याज की यह रकम भरने के लिये वारम्बार कर्ज का चक्र शुरु ही रहता
है । इसका मतलब यह है कि वर्तमान मे अर्थव्यवस्था " अपर्याप्त मुद्रा " पर
चल रही है । इसी के कारण डालर को पकडने की जीवघातक दौड शुरु है । जो जितना ज्यादा स्वार्थी, अप्रामाणिक और क्रूर होता
है वही जीतता है, बाकी को यहाँ कोई स्थान नही मिलता । फलस्वरुप
ग्राहकों की सुविधा, कीमत और माल की गुणवत्ता की अपेक्षा कंपनियां
बाजार पर अपना कब्जा जमाने के लिये अनैतिक मार्गो पर जादा खर्च करती है । विकसित देशो
की बाजारों की आवश्यकतानुसार ही ( स्वत: के पक्के माल की विक्री के लिये ) गरीब व विकासशील
देशों की प्रगती होने दी जाती है । विकासशील व गरीब राष्ट्रों को सहायता करने के नाम
पर सतत उनका शोषण करना ही अमेरिका का धोरण है ।
सन १९७१ से शुरु
की गयी अमेरिका की इस नयी अर्थव्यवस्था का नाम है " डेब्ट डालर्स "। इस नयी
अर्थव्यवस्था के परिणाम स्वरुप राष्ट्रीय मालिकत के उद्योगों का दिवाला आसानी से पिट
रहा है । सभी देशों की राष्ट्रातीत कंपनियां
काफी बडी तादाद मे विकासशील देशों मे अपना जाल फैला रही है और अपनी मालिकियता बना रही
है । उसके लिये अपनी कीमतों को अवास्तविक रीती से कम करके देशी कंपनियों को घाटे मे
लाती है और बाद मे एकबार अधिकार जमा लेते ही वही कीमतें उतनी ही अवास्तविक तरीके से
बढा देती है । धीरे-धीरे सभी प्रकार की बाजारे इन कंपनियों के हाथो मे तथा इन कंपनियों
की डोर अमेरिका की अर्थव्यवस्था के हाथो में तथा अमेरिका की सरकार यानी अमेरिका की
दुकान को कुछ भी करके फायदा पहुँचाने वाला एजंट - ऎसी परिस्थिती में किसी भी देश की
राज्यसंस्था उनके देश की मक्तेदार कंपनियों के सामने लाचार हो जाती है । अर्थात राजकीय
संस्था अब स्वतंत्र नही रह जाती । क्या वे अंतत: अमेरिका के रिमोट कंट्रोल के नीचे
ही दबने वाले है ?
वर्तमान में भारत
ने परदेशी भांडवल और औद्योगिक र्स्पधा का ठीक से मुकाबला करने वाले नियम न बनाने के
कारण ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी मालकियत उत्पन्न करके अंतत: राष्ट्र के रुप मे
भारत के हिस्से मे ज्यादा कुछ नही आने देगी । इसका स्पष्ट अहसास हमे होना चाहिये ।
सन् १९८३ के बाद संघटित क्षेत्रों मे प्रतिव्यक्ति उप्तन्न की तुलना मे असंघटित क्षेत्रों
मे प्रतिव्यक्ति आय कम हो रही है । साथ ही साथ इसी दौरान ग्रामीण क्षेत्रों के व्यक्तियों
की प्रतिव्यक्ति उत्पन्न शहरी क्षेत्रो मे प्रति व्यक्ति आय की तुलना में ज्यादा से
ज्यादा कम होती जा रही है ।
वैश्विककरण के कारण
सभी राष्ट्रों का आर्थिक विकास होगा व फलस्वरुप इन देशों का सर्वागीण विकास होगा, ऎसे उदात्त विचार हमेशा
व्यक्त किये जाते थे । परन्तु वास्तव में वैसा होते हुये कही भी दिखायी नही दे रहा
है । वास्तव में तो वैश्वीकरण के कारण संसार की मानवसंपत्ती व प्राकृतिक संपत्ती का
प्रचंड नुकसान ही हो रहा है । तर्कसंगत रुप से मुनाफे के पीछे भागते हुये सभी देशों
के पर्यावरण का बडी तेजी से नुकसान हो रहा है । ओजोन वायु का रिसाव, जंगलों का काटना, अनेको प्रजातियों का नाश, अनेक प्रकार की बँक्टीरिया तथा व्हायरसेस में जिनेटिक बदल, तापमान में बदल आदि के कारण ऎसा लगता है कि अगले १०० वर्षो में विश्व की लोकसंख्या
सचमुच एक गाव के बराबर रह जायेगी ।
इस वैश्वीकरण व अमेरिका
की आर्थिक साम्राज्यशाही के धोरण के चलते अबतक विभिन्न सामाजिक रीतियों के कारण लोंगों
द्वारा प्राप्त किये हुये राजकीय, सामाजिक और आर्थिक अधिकार नष्ट होने लगे है ।
आर्थिक साम्राज्य
के इस धोरण ( सिध्दांत ) के कारण जो सबसे बडा परिणाम हुआ है ( भारत के साथ सभी देशोंपर
) वो है, कामागारों की अवनति । एक समय भारत में अत्यंत सुंदर तरीके से चलने वाले कामगार
आंदोलनों को कुछ समय से लिये विघातक रुप प्राप्त हुआ था, यह सत्य
है, परन्तु उसके बाद १९८० के बाद से सभी प्रकार की कामगार संघटनायें
बलहीन हो गयी किंबहुना बलहीन की गयी, ऎसा विदारक दृश्य स्पष्ट
रुप से दिखायी दे रहा है । लोकशाही राष्ट्रपध्दति तथा लोकशाही समाज रचना, राष्ट्र की सच्ची संर्वागीण प्रगती के लिये आवश्यक होती है, परन्तु वास्तविक व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बिना लोकशाही अविकृत नही रह सकती,
यह अंतिम सत्य है ।
स्वत: के सामाजिक
व राष्ट्रीय अधिकार का यथोचित ज्ञान रखने वाला सामान्य व्यक्ति तैयार करना तथा उसे
उसे सामाजिक व राष्ट्रीय कर्तव्यों का भान रखने के बारे मे सिखाना ही आज की ज्वलंत
आवश्यकता है । क्योंकि अमेरिका का साम्राज्यवाद आज प्रत्येक देश की संस्कृति को भी
जीतते जा रहा है और तब अब वो दिन दूर नही जब सभी देशों की संस्कृती का बडी मात्रा में
अमेरिकीकरण हो चुका होगा । यह बात अच्छीतरह से समझ लेनी चाहिये कि आर्थिक प्रगति करते
समय मानवी मूल्यों का विचार बाजू मे रखकर होने वाली उन्नति विनाशकारी ही होती है ।
सन् २००० अप्रैल
में हुयी हॅवान परिषद में एक ऎतिहासिक घटना हुयी । स्वयं अमेरिका सहित अनेक देशों में
वैश्वीकरण का विरोध सुरु हो गया है । परन्तु जबतक हम सामान्य लोग इस समस्या को ठीक
से नही समझेंगे तब तक यह संकट पूरी पृथ्वी के विनाश की तैयारी करते ही रहेगा ।
पैसों की बरसात
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