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हरि ॐ। यह ब्लाग हमें सदगुरु श्री अनिरुद्ध बापू (डा. अनिरुद्ध जोशी) के बारें में हिंदी में जानकारी प्रदान करता है।

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आद्यपिपादादा-- भक्तिपूर्ण सफर - समीर दत्तोपाध्ये

हरि ॐ


 आद्यपिपादादा-- भक्तिपूर्ण सफर - समीर दत्तोपाध्ये


Pujya Aadya Pipadada
Pujya Aadya Pipadada

जन्म- आषाढी एकादशी १९३३
पिताजी का नाम- पांडूरंग
माताजी का नाम- लक्ष्मी


पिताजी पांडूरंगजी की संताने जी नही पा रही, इसलीये सन १९१५ मे वे शिरडी मे श्रीसाईनाथके दर्शन के लीये गये और उसके बाद उनके बच्चें जिने लगे ।
काकाजीके यादसे उनके जन्मके बाद उनको शिरडी दर्शन सन १९४० में हुआ । उसी दिन रात को द्वारकामाईमे बैठे काकाजीके पिताजी ने उनको उदी का महत्त्व समझाया ।  उस दिनसे काकाजी की साईभक्ति बहूत दृढ हो गयी ।

सन १९४५ मे काकाजी शिरडीमें द्वारकामाईमे माधवराव देशपांडे के पूत्र उध्दवराव और म्हालसापतीके पूत्र मार्तंडबाबासे मिले और उस वर्षसे काकाजीने श्रीसाईसच्चरितके हरवर्ष कमसेकम चार सप्ताह करने का निश्चय कीया, रमनवमी, गुरुपौर्णिमा, गोकुलअष्टमी और दशहरा, इसमे कभीभी अंतर नही पडा । विवाह -७ मई १९६० को प.पू. सुचितदादा और समीरदादाके माताजीसे (सुनंदाजी) काकाजी विवाह संपन्न हुआ । उन्होने स्वप्नदृष्टांतके अनुसार श्रीसाईनाथ के आज्ञासे उनका नामकरण ‘शुभदा’ ऐसे कीया ।
विवाहके पश्चात पत्निके संपूर्ण सहकार्यके कारण काकाजीके भक्तिमार्ग के सफरने अधिक प्रभावशाली स्वरुप धारण कीया । काकाजी हमेशा अपने पत्नि के सहकार्यकी प्रसन्न मनसे तारीफ करते थे ।
१) (फोटो के निचे--- ९ मई २००० व्यंकटेश जापके इस महन्मंगल दिनके समय काकाजी को दिये गये दिक्षा का उत्सव क्षण ( दिक्षान्त समारंभ होली पुर्णिमा २००१ मे साईनिवासमे संपन्न हुवा ।)


सन १८ नवंबर १९४१ को काकाजी के माताजीका देहांत हुआ था । माताजीके देहांतका दु:ख का रुपांतर आहिस्ते आहिस्ते साईभक्तिमे होने लगा । बहूतबार काकाजी अपने पाठशालाके मित्रोंके साथ शाम के समय शिवाजीके मंदिरमे भजन के लीये जाते थे । एक बार एस.एस.सी. (मॅट्रिक) पास होनेके पश्चात काकाजी शिवजीके मंदिर मे बैठकर साईस्तवनमंजिरीका पाठ कर रहे थे । पाठ पूर्ण होतेही एक वृध्द ब्राम्हण उनके सामने आकर खडे हो गये और पुछा, "बेटा, तुम्हे क्या चाहीये ? काकाजी बोले, "मुझे देह धारण कीये हुए साईनाथ चाहीये "। तब वे वृद्ध ब्राम्हण बोले" तो फीर गृहस्थाश्रम स्विकारनेके बाद १०८ तिर्थक्षेत्रोंकी यात्रा और १०८ संतोंकी स्थानोंका दर्शन पूर्ण करो ।" इतना कहकर वे वृध्द ब्राम्हण हसने लगे । काकाजीने पुछा, " पर मै तो सामान्य इन्सान हूं । देहधारी साई का रुप अलग होगा तो मै उन्हे पहचानुंगा कैसे ?" तब वे ब्राम्हण बोले , "उसी समय मै तुम्हे पहचान दुंगा ।" उस वृध्द ब्राम्हण के व्यक्तिमत्त्वने काकाजी मन को मोहित कीया । उस वृध्द ब्राम्हणके उपदेशानुसार उन्होने सबकुछ करनेकी ठान ली । विवाहके पश्चात उन्होने नौकरी और घरगृहस्थी संभलते हूऐ संतस्थादर्शन और तिर्थक्षेत्रोंकी यात्रा करना आरंभ कीया । शिरडी, पंढरपूर, गोकर्ण, महाबळेश्वर, तिरुपती, गिरनार, परळीवैद्यनाथ, घृष्णेश्वर, रामेश्वर, प्रयाग, कन्याकुमारी, इ. तिर्थक्षेत्र और आलंदी, देहू, गणेशपूरी, हुमणाबाद, गगनबावडा, सासवड, पंतबालेकुंद्री स्थान, कलावती माताजीका हरिमंदीर, सिध्दरुढ स्वामीजीका मठ, पावस, शेगाव ऐसे अनेक संतस्थान की यात्रा अनेकवार की ।

सन १९९६ मे पहली रसयात्रामे सब लोगोंको लेकर बापू शिरडीके द्वारकामाईमे गये थे । फिर वहासे सब लोगो को साथ लेकर शिरडीमें महालसापती समाधी, कनिफनाथजी का मंदिर, आदी स्थल दर्शनको निकले । लेकीन काकाजी द्वारकामाईमें बैठे रहे । उस वक्त प.पू. सुचितदादाने काकाजीको साईस्तवनमंजिरीकी पोथी दी और कहा की वो अपनें पास रखे । काकाजी श्री साईसच्चरित का एक अध्याय पढकर खडे हो गये और द्वारकामाईमे बाबाकी छबी के सामने दंडवत करने गये । वहा धुनी के पास एकाएक काकाजीके जेबसे साईस्तवनमंजिरी की पोथी निचे गीर पडी जो सुचितदादाने दी थी । वो उठाते वक्त, "अरे यह पढने के लियेही मैने तुम्हे यहा बीठाया है ।" ऐसा आवाज काकाजीने सुना । उसी क्षण काकाजीको शिवजी की मंदिर मे घटी उस पुरानी घटना का स्मरण हुआ । और वे निचे उतरकर स्तवनमंजिरीका पाठ करने बैठ गये । काकाजी वो पुरा दिन और रात मनसे अस्वस्थ रहे । सुचित हमे कुछ बताते नही, मिनावैनी, चौबल दादाजी आदी लोग बापूके बारे मे नि:संकोच होकर बता रहे है और मुझे अभितक कुछ भी प्रचिती नही मिल रही इस विचार से काकाजी उदास हो गये थे ।

ऐसेही कुछ समय द्विधा मन:स्थितीमें व्यतीत करने पश्चात सन १९९७ के गुरुपौर्णिमा के दिन हमेशाकी तरह श्रीसाईसच्चरितका सप्ताह संपन्न करनेपर रातको सोते समय काकाजीने श्रीसाईनाथको मनसे प्रार्थना की वे उन्हे स्पष्ट मार्गदर्शन करे । निंदमे उन्हे शिवजीके मंदिर का वह क्षण स्वप्नमे जैसे के तैसा दिखाई दिया । काकाजीने सुबह उठतेही शांत मन से दृठ निश्चय किया की वे जल्द से जल्द १०८ की संख्या पूर्ण करेंगे । तत्‌पश्चात पहले अश्वत्थ मारुती उत्सव के दिन हनुमानजीके मुर्तीके सामने आतेही काकाजी सभान अवस्थामे आ गये । काकाजीके मनमे फिरसे द्विधा रुप धारण किया । परंतू गुरुपूर्णिमाके रात घटी पुरानी घटनाका स्वप्नदृष्टांत याद करतेही काकाजीने निर्णय लीया की कुछभी अनुभूती मिले या कुछभी दिखाई पडे फीरभी जबतक वह वृध्द ब्राम्हण पहचान ना दे तबतक  वे सबुरी की राह पर चलेंगे । 
सन १९९९ मे उनका संकल्प पूर्ण हो गया । प.पू. अनिरुध्द बापूजीका  प.पू. सुचितदादाके मित्रके नाते सन १९८५ मे परिचय हूआ था और १९९५ से वे बापूजीके भक्तिमार्ग का आचरण कर रहे थे । लेकीने उनके जीवनको महत्वपूर्ण क्षण १९९९ मे धर्मचक्र स्थापनाके दिन आया । उस दिन अरुंधती माताजीने जुईनगरमें श्रीवोद्यामकरंद गोपिनाथ शास्त्री पाध्ये इनके तस्वीरका अनावरण कीया । उनका चेहरा देखतेही उन्हे शिवजीके मंदिरका ब्राम्हण यही है ऐसी साक्ष मिलनेपर काकाजी पूर्ण निश्चिंत हो गये । तत्‌पश्चात जल्दही व्यंकटेश महोत्सवमे काकाजी जाप करते समय उनको पूर्णरुपसे साईरुपका दर्शन हूआ और काकाजीने कई वर्षोसे "ॐ साईनाथाय नम:" यह जाप बदलकर सन ९ मई २००० से "ॐ साईनाथाय अनिरुध्दाय नम:" ऐसा शुरु कीया ।

१३ नवंबर २००० की रात  काकाजी और सारे बापूभक्तोंके लीये अत्यंत फलदायी हो गयी । उसी दिन शामको बापूजीने काकाजीको पिपिलीका पांथस्त इस पदपर नियुक्त कर अपना कार्य शुरु करनेकी आज्ञा दी । उसी रात आधीरातमे निंदसे काकाजी यकायक जागकर बैठ गये और उन्हे दूसरे अभंग की स्फुर्ती हूई । यह अभंग मतलब काकाजीकी बापूके चरणधूलीमे नहाने की उनकी कठोर इच्छा ।
उसके बाद काकाजी अध्यात्मिक सफर एक अलगही लेकीने उचीत और क्षमतापूर्ण मार्गसे शुरु हुआ । सन २००४ के रामनवमीके दिन रात को उत्सव संपन्न कर प.पू. बापू, सुचितदादा, काकाजी और मै गपशप करते बैठे थे । बराबर साढेतीन बजे झूले पर बैठे बापूजी उठ खडे हो गये और काकाजीको बोले, "आज अभीके अभी आप समीरको गुरुमंत्र दो" । काका बोले, "आपकी आज्ञा सर आँखो पर, लेकीन समीरको गुरुमंत्र देनेकी मेरी योग्यता है ऐसे मुझे नही लगता ।" तब बापू हँसकर बोले, "अरे, जब हजारो लोग हमारे तीनोंके जयजयकारके बाद समीरके पहले तुम्हारा जयजयकार करते है तब ऑब्जेक्शन क्यों नही लेते ? काका बोले, "भगवन, आपसे मै क्यू उलझ पडा? आप जो कहेंगे वो मै करुंगा ।" बापूजीने काकाजीको आँखे बंद कर श्रीसाईसच्चरित खोलने के लिये कहा और एक उंगली पन्नेपर कहीभी रखो ऐसे कहा । वह आध्याय ११ (ग्यारहवाँ) और १५२ वी चौपाई थी । वही चौपाई बापूजीने काकाजीके माध्यमसे मुझे गुरुमंत्रके रुपमे दी।

पुरेल अपूर्व इच्छित कामा । व्हाल अंती पूर्ण निष्काम । पावाल दुर्लभ सायुज्यधाम । अखंड राम लाधाल ॥
बापूजीकी लीला देखकर मै प्रेमभावसे आश्चर्यचकित हो गया । मेरे दादा ( सुचितदादा ) यह बापूजीका शिष्य, मेरे पीताजी सुचितदादाके शिष्य और मै काकाजीका शिष्य ( मेरे पीताजीका ) । तत्‌पश्चात काकाजीने बापूजीके चरण पकडे उनकी प्रार्थना की, "एक पूत्र मेरा गुरु है और दुसरा शिष्य । इसके आगे कीसीका गुरुत्व मुझे मत सौंपीये । व्यंकटेश जापके दिन मैने आपसे एकही माँगा था की मुझे मानसन्मान, प्रसिध्दि या बढ्ढपन नही चाहीये । आजभी मै वही माँग रहा हू । मेरी अंतीमयात्राभी कीसी बडे भक्तकी न होकर ‘सिर्फ’ सुचित के पिता की हो क्योंकी वही मेरे लीये सुखद अनुभूती है । बापू बोले, "अबतक सबकुछ तुम्हारे इच्छाके अनुसार हुआ न ।" तब काकाजी बोले, "जी हा पर ९६ से लेकर ९९ तक मुझे क्यों रखडाया ?" बापू बोले, "मैने नही रखडाया तूमही तुम्हारे  गलत गीनतीके कारण रखड गये । तुम्हारी १०८ स्थानोंकी गीनती ९७ वे की रामनवमीकोही पूर्ण हो गयी थी । लेकीन गुरुवारके प्रवचनस्थलको तूमने अपने गीनतीमें नही लीया इसीके कारण तुम्हारे मनमें १०८ की संख्या पूर्ण नही हूई थी । इसी वजहसे उस स्वप्नदृष्टांतके वृध्द ब्राम्हण मतलब गोपीनाथशास्त्री पाध्येजीका फोटो ९७ के रामनवमीके दिन देखकर भी पेहचान न सके, तुम्हे साक्ष मिली नही, कारण रामनवमीके दिन फोटो कोट और पगडीमें था और तुम्हारे अनुभूतीका वृध्द ब्राम्हण शिखा और शाल पेहने हुऐ था ।" काकाजी बापूजीके चरणोंपर गीर पडे और उसी दिनसे उन्होने अखंड जापका प्रारंभ कीया ।
काकाजीके अध्यात्मिक सफरके बहूतसी घटनाओंका हमसफर बननें का भाग्य मुझे प्राप्त हूआ, उनका शिष्यत्वभी मुझे मिला, लेकीन काकाजीने सबसे बडी दी  हूई चीज यही के, बापूजीने जीस क्षण मेरे सामने काकाजीको कहा की अभी कुछ चंद घंटे बाकी है तब काकाजीने बापूजीके हाथ में दीया हूआ मेरा हाथ ।


॥ हरि ॐ ॥



1- बापू तूम्हारे पीछे पीछे खडा मै सदैव । सिचितने दिखाया यही एक स्थान ॥ ऐसा जीवन व्यतीत करनेवाले पूज्य काकाजी ।

















2- बापूजीके पिताजी माताजी और चौबल दादाजी इनके प्रती हरवक्त आदरभाव रखकर अनुसार आचरण करनेवाले काकाजी ।















3- धर्मचक्रस्थापनाके दिन श्री विद्यामकरंदजीके तसवीर अनावरणके पश्चात उनके बारे मे वार्तालाप करते  हूऐ सिचितदादाकी माताजी, काकाजी और बापूजीके पिताजी व बापूजी ।
















4- पहले अश्वत्थ मारुती का वो दिन ।














5- पूज्य काकाजीने धर्मचक्र स्थापनाके दिन जुईनगर में देखा हूआ प.पू. श्री गोपीनाथशास्त्री पाध्येजी का फोटो । ( २९ अप्रैल १९९९)


6- पूज्य काकाजीने रामनवमी १९९७ मे वर्तक हाल मे देखा हुआ प. पू श्री. गोपीनाथशास्त्री पाध्येजी का फोटो ।









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