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हर एक व्यक्ति स्वयं ही स्वयं का मार्गदर्शक है । मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अस्तित्व का एहसास रखकर स्वयं के हित का विचार करके, स्वयं का आत्मपरीक्षण करके अपना विकास करे । उपलब्ध जीवनकाल का उचित उपयोग करके मानव अपना आत्महित किस तरह कर सकता है, इस बारे में परम पूज्य सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापु ने अपने गुरूवार दिनांक २४ जुलाई २०१४ के हिंदी प्रवचन में बताया, जो आप इस व्हिडियो में देख सकते हैं l
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मानव को प्राथमिक स्तर पर यह जानना चाहिए कि वह है, उसका अस्तित्व है, इसलिए उसके लिए सब कुछ है । `मैं हूँ’ इस बात का मानव को एहसास रखना चाहिए । मानव को अन्तर्मुख होकर `मैं कैसा हूँ’ यह स्वयं से पूछना चाहिए । बहुत बार मानव अपने अस्तित्व का एहसास खोकर जीवन भर कल्पना में जीता है और इस वजह से जीने के आनन्द से वंचित रह जाता है, इस बारे में परम पूज्य सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापुं ने अपने गुरूवार दिनांक २४ जुलाई २०१४ के हिंदी प्रवचन में बताया, जो आप इस व्हिडियो में देख सकते हैं lविडियो लिंक - http://aniruddhafriend-
samirsinh.com/awareness-of- being/ -
हरि ॐश्रीसाईसच्चरितका महिमा कथन करते हूऐं मेरे सद्गुरु श्री अनिरुध्दसिंह (अनिरुध्द बापू) कहते है, श्रीसाईसच्चरित यह केवल श्रीसाईनाथका चरित्रकथन नही। यह ग्रंथ विविध भक्तोंका जीवन और उन्हे साईक्रिपा कैसे प्राप्त हूई इन बातों का विवेचन है। यह ग्रंथ इतिहास बताता है। इनमे जितना साईनाथजीका चरित्र है उतनाही साईभक्तोंका चरित्र है और इसलिये यह ग्रंथ हमारेलीये परमेश्वरकी क्रिपा कैसे प्राप्त की जाए यह बतानेवाला मार्गदर्शक है । श्रीसाईमहिमाके प्रथम चौपाईमें बापू कहते है ,"साईनाथ मेरा देव ; साईनाथ मेरा माव ; साईनाथ मेरा साव ; साईनाथ सद्गुरु !"
सन १९९५ मे जब उपासनाकी शुरुवात हुई; बापू खुद यह उपासना करते । तत्पश्चात सुचितदादा वह उपासना करने लगे । ‘साईमहिमा ’ यह इस उपासना का अंग था और सब उपस्थित श्रध्दावान इस उपासनामें शामिल होकर नियमित उनके साथ उपासना का पाठ करते थे । बापू कहते है, श्रीसाईनाथ यह उनके दिग्दर्शक ( दिशा दर्शन कराने वाले ) गुरु है । आन्हिक में अचिन्त्यदानी स्तोत्रके चौपाईमें यही उद्देशीत की गई साईनाथकी प्रार्थना है ।साईरामा तव शरणम् । कृपासिंधो तव शरणम् । दिगंबरा दीनदयाला । दिशादर्शका तव शरणम्।ॐ कृपासिंधू श्री साईनाथाय नम: । और ॐ अभयदाता श्रीस्वामीसमर्थाय नम: ।" यह बापूजीके कार्यके आद्य और प्रमुख जाप जो शुरवातसेही अपने गुरुवारके उपासना का एक अंग है । कलीयुग में मतिभ्रष्ट जीवको उचित मार्गपर लानेवाले साईनाथ है । खेदजनस स्थिती या जीवनकी प्रतिकुलतासे व्यथित होकर मानव गलत राहपर भटक जाता है । परमेश्वर का प्यार और क्रिपा प्राप्त कर लेना तो दूर वह दु:खके चक्रव्यूहमे घुमता रहता है । बाहर कैसे निकले यह ना समझकर, पिछे हटें तो पानी सर के बल निकल चूका होता है, अब मार्ग नही ऐसी अवस्था होती है । लेकीन एसे परिस्थितीमें भक्तिमार्गपर डाला हूआ एक कदम...... सिर्फ एक कदम भी उसको दु:ख की खाईसे निकालकर उचित मार्ग का दिशादर्शन करवा दे सकता है । श्रीसाईमहिमा में बापू आगे कहते है - श्रीसाईसच्चरित भक्तिका यह मार्ग हमें समझा देता है । भक्ति कैसे करें यह ग्रंथ हमे बताता तो है लेकीन यह बताते वक्त अपनी भक्ति बढाकर अधिक दृढभी करवाता है । भक्तिमार्गमे अपना कदम अधिक मजबूत करता है । भक्ति निर्धारीत बनाता है ।बापूजीका हिंदी प्रवचन श्रीसाईसच्चरितपर आधारीत होता है । उन्होने शुरु की हूई पंचशील इम्तेहानभी श्रीसाईसच्चरितपर अधारीत है । यह सब वे केवल हमारेलीये, अपना भक्तिमार्गका सफर आसान हो , सुखकर तथा परिपूर्ण हो, इस इम्तेहान के कारण हम जो पढाई और साईभक्तोंका चिंतन करते है इसमेसे हमें रोजके जीवनशैलीमें मार्गदर्शक तत्वकी प्राप्ती हो और उनका आचरण हम करे इस हेतूसेही करते है ।श्रीसाईसच्चरितपर आधारित यह फोरम हरेक श्रध्दावानको श्रीसाईनाथकी सीख समझ लेनेके लीये वह अपने जींदगीमे आचरीत करने के लीये सचमुच उपयुक्त होगी, यह मै निश्चित रुपसे कह सकता हू । इस फोरमद्वारा हमारे सामने श्रीसाईसच्चरितके संबंधमें आनेवाला विषय, एखाद कथा ( प्रसंग ) रखी जाएगी । सदस्य उस विषयमें अपना मत अंग्रेजी, हिंन्दी या मराठी इनमेसे कीसीभी भाषामें व्यक्त कर सकते है । यह संवाद इस ग्रंथकी अनेक खुबीया खुलकर दिखाएगी ओर वह अधिक आसान करके उसके गहराईतक पहूंचनेमे मद्द्त करेगी । वैसेभी साईनाथजीने हमे बचन दियाही हैमग जो गाई वाडेकोडे । माझे चरित्र माझे पवाडे । तयाच्या मी मागेपुढे । चोहीकडे उभाची । (" जो मेरे चरित्र और कृत्यों का श्रध्दापूर्वक गायन करेगा उसकी मै हर प्रकार से सदैव सहायता करुंगा ।")तो अब ‘ साई द गायडिंग स्पिरीट’ इस फोरमका शुभारंभ करते हूऐ मै बताना चाहता हू की मेरे सद्गुरुजीने श्रीअनिरुध्द बापूजीने ( अनिरुध्दसिंह ) लीखा हूआ ‘श्री साईमहिमा ’ यह स्तोत्र सारे श्रध्दावानोंको मार्गदर्शक और अश्वासक हो जाए और यह निश्चित है । -
मानव को यह श्रद्धा रखनी चाहिए कि मैं भगवान से जुडा हुआ हूँ और भगवान दयालु एवं क्षमाशील हैं, वे मुझे सजा देने के लिए नहीं, बल्कि प्रेम से मेरा उद्धार करने आये हैं । भगवान से क्षमा अवश्य माँगिए, परंतु भगवान ने मेरा साथ छोड दिया है, ऐसा कभी भी मत मानना । भगवान से मुझे अन्य कोई भी अलग नहीं कर सकता, इस श्रद्धा के महत्त्व के बारे में परम पुज्य सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापुने अपने २४ जुलाई २०१४ के हिंदी प्रवचन में बताया, जो आप इस व्हिडियो में देख सकते हैं l
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Aniruddha Bapu
कृष्णसंयुता यह राधाजी का महज नाम नहीं है, बल्कि यह तो राधाजी की स्थिति है, यह राधाजी की आकृति है, यह राधाजी का भाव है । दर असल कृष्णसंयुता ही राधाजी का मूल स्वरूप है । भरोसा यह कृष्णसंयुत ही होता है और इसीलिए भरोसा यह तत्त्व राधाजी से जुडा है । राधाजी के कृष्णसंयुता इस नाम के बारे में सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध ने अपने १९ फ़रवरी २००४ के हिंदी प्रवचन में बताया, जो आप इस व्हिडियो में देख सकते हैंl
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Aniruddha Bapu
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हरि ॐ
आद्यपिपादादा-- भक्तिपूर्ण सफर - समीर दत्तोपाध्ये
Pujya Aadya Pipadada
पिताजी का नाम- पांडूरंग
माताजी का नाम- लक्ष्मी
पिताजी पांडूरंगजी की संताने जी नही पा रही, इसलीये सन १९१५ मे वे शिरडी मे श्रीसाईनाथके दर्शन के लीये गये और उसके बाद उनके बच्चें जिने लगे ।
काकाजीके यादसे उनके जन्मके बाद उनको शिरडी दर्शन सन १९४० में हुआ । उसी दिन रात को द्वारकामाईमे बैठे काकाजीके पिताजी ने उनको उदी का महत्त्व समझाया । उस दिनसे काकाजी की साईभक्ति बहूत दृढ हो गयी ।
सन १९४५ मे काकाजी शिरडीमें द्वारकामाईमे माधवराव देशपांडे के पूत्र उध्दवराव और म्हालसापतीके पूत्र मार्तंडबाबासे मिले और उस वर्षसे काकाजीने श्रीसाईसच्चरितके हरवर्ष कमसेकम चार सप्ताह करने का निश्चय कीया, रमनवमी, गुरुपौर्णिमा, गोकुलअष्टमी और दशहरा, इसमे कभीभी अंतर नही पडा । विवाह -७ मई १९६० को प.पू. सुचितदादा और समीरदादाके माताजीसे (सुनंदाजी) काकाजी विवाह संपन्न हुआ । उन्होने स्वप्नदृष्टांतके अनुसार श्रीसाईनाथ के आज्ञासे उनका नामकरण ‘शुभदा’ ऐसे कीया ।
विवाहके पश्चात पत्निके संपूर्ण सहकार्यके कारण काकाजीके भक्तिमार्ग के सफरने अधिक प्रभावशाली स्वरुप धारण कीया । काकाजी हमेशा अपने पत्नि के सहकार्यकी प्रसन्न मनसे तारीफ करते थे ।
१) (फोटो के निचे--- ९ मई २००० व्यंकटेश जापके इस महन्मंगल दिनके समय काकाजी को दिये गये दिक्षा का उत्सव क्षण ( दिक्षान्त समारंभ होली पुर्णिमा २००१ मे साईनिवासमे संपन्न हुवा ।)
सन १९९६ मे पहली रसयात्रामे सब लोगोंको लेकर बापू शिरडीके द्वारकामाईमे गये थे । फिर वहासे सब लोगो को साथ लेकर शिरडीमें महालसापती समाधी, कनिफनाथजी का मंदिर, आदी स्थल दर्शनको निकले । लेकीन काकाजी द्वारकामाईमें बैठे रहे । उस वक्त प.पू. सुचितदादाने काकाजीको साईस्तवनमंजिरीकी पोथी दी और कहा की वो अपनें पास रखे । काकाजी श्री साईसच्चरित का एक अध्याय पढकर खडे हो गये और द्वारकामाईमे बाबाकी छबी के सामने दंडवत करने गये । वहा धुनी के पास एकाएक काकाजीके जेबसे साईस्तवनमंजिरी की पोथी निचे गीर पडी जो सुचितदादाने दी थी । वो उठाते वक्त, "अरे यह पढने के लियेही मैने तुम्हे यहा बीठाया है ।" ऐसा आवाज काकाजीने सुना । उसी क्षण काकाजीको शिवजी की मंदिर मे घटी उस पुरानी घटना का स्मरण हुआ । और वे निचे उतरकर स्तवनमंजिरीका पाठ करने बैठ गये । काकाजी वो पुरा दिन और रात मनसे अस्वस्थ रहे । सुचित हमे कुछ बताते नही, मिनावैनी, चौबल दादाजी आदी लोग बापूके बारे मे नि:संकोच होकर बता रहे है और मुझे अभितक कुछ भी प्रचिती नही मिल रही इस विचार से काकाजी उदास हो गये थे ।
ऐसेही कुछ समय द्विधा मन:स्थितीमें व्यतीत करने पश्चात सन १९९७ के गुरुपौर्णिमा के दिन हमेशाकी तरह श्रीसाईसच्चरितका सप्ताह संपन्न करनेपर रातको सोते समय काकाजीने श्रीसाईनाथको मनसे प्रार्थना की वे उन्हे स्पष्ट मार्गदर्शन करे । निंदमे उन्हे शिवजीके मंदिर का वह क्षण स्वप्नमे जैसे के तैसा दिखाई दिया । काकाजीने सुबह उठतेही शांत मन से दृठ निश्चय किया की वे जल्द से जल्द १०८ की संख्या पूर्ण करेंगे । तत्पश्चात पहले अश्वत्थ मारुती उत्सव के दिन हनुमानजीके मुर्तीके सामने आतेही काकाजी सभान अवस्थामे आ गये । काकाजीके मनमे फिरसे द्विधा रुप धारण किया । परंतू गुरुपूर्णिमाके रात घटी पुरानी घटनाका स्वप्नदृष्टांत याद करतेही काकाजीने निर्णय लीया की कुछभी अनुभूती मिले या कुछभी दिखाई पडे फीरभी जबतक वह वृध्द ब्राम्हण पहचान ना दे तबतक वे सबुरी की राह पर चलेंगे ।
सन १९९९ मे उनका संकल्प पूर्ण हो गया । प.पू. अनिरुध्द बापूजीका प.पू. सुचितदादाके मित्रके नाते सन १९८५ मे परिचय हूआ था और १९९५ से वे बापूजीके भक्तिमार्ग का आचरण कर रहे थे । लेकीने उनके जीवनको महत्वपूर्ण क्षण १९९९ मे धर्मचक्र स्थापनाके दिन आया । उस दिन अरुंधती माताजीने जुईनगरमें श्रीवोद्यामकरंद गोपिनाथ शास्त्री पाध्ये इनके तस्वीरका अनावरण कीया । उनका चेहरा देखतेही उन्हे शिवजीके मंदिरका ब्राम्हण यही है ऐसी साक्ष मिलनेपर काकाजी पूर्ण निश्चिंत हो गये । तत्पश्चात जल्दही व्यंकटेश महोत्सवमे काकाजी जाप करते समय उनको पूर्णरुपसे साईरुपका दर्शन हूआ और काकाजीने कई वर्षोसे "ॐ साईनाथाय नम:" यह जाप बदलकर सन ९ मई २००० से "ॐ साईनाथाय अनिरुध्दाय नम:" ऐसा शुरु कीया ।
१३ नवंबर २००० की रात काकाजी और सारे बापूभक्तोंके लीये अत्यंत फलदायी हो गयी । उसी दिन शामको बापूजीने काकाजीको पिपिलीका पांथस्त इस पदपर नियुक्त कर अपना कार्य शुरु करनेकी आज्ञा दी । उसी रात आधीरातमे निंदसे काकाजी यकायक जागकर बैठ गये और उन्हे दूसरे अभंग की स्फुर्ती हूई । यह अभंग मतलब काकाजीकी बापूके चरणधूलीमे नहाने की उनकी कठोर इच्छा ।
उसके बाद काकाजी अध्यात्मिक सफर एक अलगही लेकीने उचीत और क्षमतापूर्ण मार्गसे शुरु हुआ । सन २००४ के रामनवमीके दिन रात को उत्सव संपन्न कर प.पू. बापू, सुचितदादा, काकाजी और मै गपशप करते बैठे थे । बराबर साढेतीन बजे झूले पर बैठे बापूजी उठ खडे हो गये और काकाजीको बोले, "आज अभीके अभी आप समीरको गुरुमंत्र दो" । काका बोले, "आपकी आज्ञा सर आँखो पर, लेकीन समीरको गुरुमंत्र देनेकी मेरी योग्यता है ऐसे मुझे नही लगता ।" तब बापू हँसकर बोले, "अरे, जब हजारो लोग हमारे तीनोंके जयजयकारके बाद समीरके पहले तुम्हारा जयजयकार करते है तब ऑब्जेक्शन क्यों नही लेते ? काका बोले, "भगवन, आपसे मै क्यू उलझ पडा? आप जो कहेंगे वो मै करुंगा ।" बापूजीने काकाजीको आँखे बंद कर श्रीसाईसच्चरित खोलने के लिये कहा और एक उंगली पन्नेपर कहीभी रखो ऐसे कहा । वह आध्याय ११ (ग्यारहवाँ) और १५२ वी चौपाई थी । वही चौपाई बापूजीने काकाजीके माध्यमसे मुझे गुरुमंत्रके रुपमे दी।
पुरेल अपूर्व इच्छित कामा । व्हाल अंती पूर्ण निष्काम । पावाल दुर्लभ सायुज्यधाम । अखंड राम लाधाल ॥
बापूजीकी लीला देखकर मै प्रेमभावसे आश्चर्यचकित हो गया । मेरे दादा ( सुचितदादा ) यह बापूजीका शिष्य, मेरे पीताजी सुचितदादाके शिष्य और मै काकाजीका शिष्य ( मेरे पीताजीका ) । तत्पश्चात काकाजीने बापूजीके चरण पकडे उनकी प्रार्थना की, "एक पूत्र मेरा गुरु है और दुसरा शिष्य । इसके आगे कीसीका गुरुत्व मुझे मत सौंपीये । व्यंकटेश जापके दिन मैने आपसे एकही माँगा था की मुझे मानसन्मान, प्रसिध्दि या बढ्ढपन नही चाहीये । आजभी मै वही माँग रहा हू । मेरी अंतीमयात्राभी कीसी बडे भक्तकी न होकर ‘सिर्फ’ सुचित के पिता की हो क्योंकी वही मेरे लीये सुखद अनुभूती है । बापू बोले, "अबतक सबकुछ तुम्हारे इच्छाके अनुसार हुआ न ।" तब काकाजी बोले, "जी हा पर ९६ से लेकर ९९ तक मुझे क्यों रखडाया ?" बापू बोले, "मैने नही रखडाया तूमही तुम्हारे गलत गीनतीके कारण रखड गये । तुम्हारी १०८ स्थानोंकी गीनती ९७ वे की रामनवमीकोही पूर्ण हो गयी थी । लेकीन गुरुवारके प्रवचनस्थलको तूमने अपने गीनतीमें नही लीया इसीके कारण तुम्हारे मनमें १०८ की संख्या पूर्ण नही हूई थी । इसी वजहसे उस स्वप्नदृष्टांतके वृध्द ब्राम्हण मतलब गोपीनाथशास्त्री पाध्येजीका फोटो ९७ के रामनवमीके दिन देखकर भी पेहचान न सके, तुम्हे साक्ष मिली नही, कारण रामनवमीके दिन फोटो कोट और पगडीमें था और तुम्हारे अनुभूतीका वृध्द ब्राम्हण शिखा और शाल पेहने हुऐ था ।" काकाजी बापूजीके चरणोंपर गीर पडे और उसी दिनसे उन्होने अखंड जापका प्रारंभ कीया ।
काकाजीके अध्यात्मिक सफरके बहूतसी घटनाओंका हमसफर बननें का भाग्य मुझे प्राप्त हूआ, उनका शिष्यत्वभी मुझे मिला, लेकीन काकाजीने सबसे बडी दी हूई चीज यही के, बापूजीने जीस क्षण मेरे सामने काकाजीको कहा की अभी कुछ चंद घंटे बाकी है तब काकाजीने बापूजीके हाथ में दीया हूआ मेरा हाथ ।
॥ हरि ॐ ॥
1- बापू तूम्हारे पीछे पीछे खडा मै सदैव । सिचितने दिखाया यही एक स्थान ॥ ऐसा जीवन व्यतीत करनेवाले पूज्य काकाजी ।
2- बापूजीके पिताजी माताजी और चौबल दादाजी इनके प्रती हरवक्त आदरभाव रखकर अनुसार आचरण करनेवाले काकाजी ।
3- धर्मचक्रस्थापनाके दिन श्री विद्यामकरंदजीके तसवीर अनावरणके पश्चात उनके बारे मे वार्तालाप करते हूऐ सिचितदादाकी माताजी, काकाजी और बापूजीके पिताजी व बापूजी ।
4- पहले अश्वत्थ मारुती का वो दिन ।
5- पूज्य काकाजीने धर्मचक्र स्थापनाके दिन जुईनगर में देखा हूआ प.पू. श्री गोपीनाथशास्त्री पाध्येजी का फोटो । ( २९ अप्रैल १९९९)
6- पूज्य काकाजीने रामनवमी १९९७ मे वर्तक हाल मे देखा हुआ प. पू श्री. गोपीनाथशास्त्री पाध्येजी का फोटो ।
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जीवन मंगलमय बनाना हो तो भगवान के साथ कभी भी अहंकार से पेश नहीं आना चाहिए । राधाजी स्वयं हंकाररूपा हैं, अहंकार कभी राधाजी में होता ही नहीं है । भक्तमाता राधाजी जिसके जीवन में सक्रिय रहती हैं, उसके जीवन में अहंकार का अपने आप ही लोप हो जाता है । राधाजी की कृपा से श्रद्धावान का जीवन मंगल कैसे होता है, यह बात सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापु ने ५ मई २००५ के प्रवचन में बतायी, जो आप इस व्हिडियो में देख सकते हैं l
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Aniruddha Bapu
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महाभाव-स्वरूपा राधाजी के सहस्र नामों में से प्रत्येक नाम की महिमा स्पष्ट करते हुए सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापु अपने प्रत्येक प्रवचन में ’भक्तिमार्ग पर भक्तमाता राधाजी अपने बच्चों के लिए यानी श्रद्धावानों के लिए किस तरह सक्रिय रहती हैं’, यह भी विशद करते थे । ’ॐ रां राधायै राधिकायै रमादेव्यै नम:’ इस मन्त्र का जप ’राधासहस्रनाम’ पर आधारित प्रत्येक हिन्दी प्रवचन के बाद सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापु स्वयं करते थे और श्रद्धावान भी उनके साथ इस जप में सम्मिलित होते थे । यह जप आप इस व्हिडियो में देख सकते हैं l
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मैं भगवान का हूँ, मेरे पास जो कुछ भी है वह भगवान का दिया हुआ ही है, मैं जो भक्ति कर रहा हूँ वह भगवान की कृपा से भगवान को प्राप्त करने के लिए ही कर रहा हूँ, इस समर्पित भाव के साथ श्रद्धावान को भक्तिपथ पर चलना चाहिए । केवल काम्यभक्ति न करते हुए समर्पण भाव से भगवान की आराधना करना श्रेयस्कर है, समर्पण ही आराधना की आत्मा है(Surrendering to The God is the Core of Worship), यह बात सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध ने अपने दि. 4 मार्च 2004 के प्रवचन में बतायी, जो आप इस व्हिडियो में देख सकते हैं l
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जीवन में भगवान को प्राथमिकता देनी चाहिए । मैं भगवान के घर में रहता हूँ, यह भाव रहना चाहिए l जो मेरा है वह भगवान ने ही मुझे दिया हुआ है, इसलिए मेरा जो कुछ भी है वह भगवान का है, मैं भगवान का हूँ, इस भाव के साथ श्रद्धावान के द्वारा की गयी भगवद्भक्ति को एकविधा भक्ति (Ekavidha Bhakti) कहते हैं, यह बात सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापु ने अपने दि. 4 मार्च 2004 के प्रवचन में बतायी, जो आप इस व्हिडियो में देख सकते हैं l
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मानव भुक्ति से लेकर मुक्ति तक कुछ भी यदि भगवान से प्राप्त करना चाहता है, तो उसे भगवान का एकविधा ध्यान (Ekavidha Dhyaan) करना चाहिए । ” भगवान, तुम्हारे सिवा मेरा कोई नहीं है, मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ तुम्हारे ही आधार से कर रहा हूँ, तुम्हें पाने के लिए कर रहा हूँ ” इस भाव के साथ श्रद्धावान के द्वारा भगवान का किया गया ध्यान ही एकविधा ध्यान है, यह बात परम पूज्य सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापु ने अपने दि. 4 मार्च 2004 के हिंदी के प्रवचन में बतायी, जो आप इस व्हिडियो में देख सकते हैं l
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