॥ हरि ॐ ॥
मार्ग पर चल पड़ा...........
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Dr. Shivaji Hanumant Dange |
लेखक - डाँ.शिवाजी हनुमंत डांगे(आय. आर. एस.)
बॉम्बे व्हेटनरी कालेज, परेल मुंबई से पशुवैद्यकीय शास्त्र में पदवी (एम. व्ही. एस. सी.) एम. पी. एस. सी. परीक्षा में प्रथम क्रमांक नाशिक के भूतपूर्व उपजिलाधिकारी यू.वी.एस.सी. में भारतीय महसूल सेवा में (आय.आर.एस.) में नियुक्ति भारत के मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, दिल्ली जैसे अनेक राज्यों में विविध पदों पर कार्यरत रहे। वर्तमान में पूना विभाग के ‘कस्टम्स, सेंट्रल एक्साईज ऍण्ड सर्व्हिस टैक्स में सह-आयुक्त के पद पर कार्यरत।
पंद्रह वर्ष पहले थोड़े समय के लिये मिले हुये व्यक्ति का हमें मिलना, मुझे उसे पहचान लेना, उनके द्वारा मुझे पहचान लेना, सब कुछ कल्पनातीत है। इन्हीं विचारों की मग्नाव्यवस्था में, पैर से लेकर सिर तक भीगी हुयी अवस्था में, हम हॉल में पहुँच गये। इसी स्थिती में मैं मंच की ओर देख रहा था। इतने में मंच पर सद्गुरु का आगमन हुआ और एकटक, भावविभोर अवस्था में मैं उन्हें देखता ही रह गया। तभी आरती शुरू हो गयी.................
मेरे भावविश्व में विचार गूँजा, यहीं तो है सद्गुरु की अनुभूति।
पैर से लेकर सिर तक पूरी तरह भीगी हुयी अवस्था में मैं मंच की ओर देख रहा था। इतने में ही मंच पर सद्गुरु का आगमन हुआ और मैं एकटक, भाव-विभोर होकर उन्हें देखता ही रह गया। तभी आरती शुरू हो गयी। मैं यादों के झूले में हिचकोले लेते हुआ कुछ याद करने का प्रयास कर रहा था। ‘हम सद्गुरु से कहाँ मिले थे? उसी समय आरती सम्पन्न हो गयी। दर्शन करते हुये, भीगें जूतों की थैली संभालते हुये मै व मेरे मित्र श्रीयुत अरूणराव साळुंके उस भक्ती के जनसागर के साथ-साथ ‘मानव-सेवा संघ’ सायन के हॉल से बाहर आ गये। वह सन् २००२ की गुरुपूर्णिमा की रात का दस बजे का समय था। उसी दिन शाम को छ: बजे, जब मैं अपने विक्रोली स्थित कार्यालय से घर जाने की तैयारी कर रहा था, तभी मेरे मित्र श्री.अरूणराव का फोन आया कि, ‘वे मेरे कार्यालय में आ रहे हैं।’ थोड़ी ही देर मं वे आ गये। उन्होंने बताया कि आज ‘गुरुपूर्णिमा’ है। इससे पहले मैं कभी भी किसी भी गुरु के पास अथवा गुरुपूर्णिमा के उत्सव में गया नहीं था, अत: मैंने कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया। अरूणराव ने कहा, ‘यदि आपके पास समय हो तो हम सायन स्थित मानव-सेवा संघ में चले व अनिरुद्ध महाराज के दर्शन ले।’ उन्हें कार्यक्रम के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं थी। अनायास ही मैंने उन्हें मूक संमती दे दी और हम गाड़ी से सायन पहुँच गये।
बरसात का मौसम होने के कारण शाम से ही जोरदार बरसात हो रही थी। ऐसा लगा कि ड्रायव्हर को देर हो जायेगी, अत: मैंने उसे घर भेज दिया। बरसात में भीगते-भीगते ही हम दोनों मानव-सेवा संघ के मुख्य द्वार तक आ गये व कौतुहल वश, यह कैसा उत्सव हो रहा है, यह देखने के लिये हम वहीं खड़े रहें। वहाँ पर उपस्थित बहुत सारे स्वयंसेवक, शिस्तबद्ध पद्धती से कतार का नियोजन कर रहे थे। हम भी कतार से जाकर दर्शन लेंगे, ऐसा सदविचार मन में आने से कहों या यहाँ पर हमारी पहचानवाला कोई भी ना होने के कारण कहो, हमने भी कतार से जाकर दर्शन करने का निश्चय किया व कतार का अंतिम सिरा ढूंढ़ने के लिये चल पड़े। बरसात में भीग़ते हुये हम आधे घंटे तक चलते रहे फिर भी कतार का अंतिम सिरा मिल नहीं रहा था।
विभिन्न रास्तों चलते-चलते अंतत: हम उस ‘जन-कतार’ के अंतिम सिरे पर खड़े हो गये। शाम के सात बजे से लेकर रात के नौ बज चुके थे। फिर कतार में हम सिर्फ बीस मीटर तक ही आगे बढ़ पाये थे। लोग भक्ती-गीत गा रहे थे। चूँकि हमें कुछ भी पता नहीं था। अत: हमारे मन में चुल-बुल चल रही थी। काफी निराशा हो रही थी। मेरा गणितीय मन हिसाब लगाने लगा कि यदि दो घंटों में कतार सिर्फ बीस मीटर तक ही आगे बढ़ी है तो रात के बारह बजे तक यानी गुरुपूर्णिमा के समाप्त होने तक ज्यादा से ज्यादा हम पचास मीटर तक आगे जा सकेंगे। यानी बेमतलब तीन घंटों तक कतार में खड़े रहने के बाद भी आज के दिन दर्शन करने का हमारा उद्देश्य अधूरा ही रहने वाला है। आलसी मन कतार छोड़कर घर जाने का इरादा कर रहा था परन्तु अभी भी विवेक उसका विरोध कर रहा था।
अंतत: आज तो दर्शन पाना संभव ही नहीं हैं, इस विचार ने छ्लाँग मारी और ज्यादा से ज्यादा प्रदक्षिणा करेंगे व जिस तरह पंढ़रपूर में बाहर से दर्शन करते हैं तथा कलश को नमस्कार करते हैं वैसा करके जायेंगे, इस तरह के अनावश्यक कारण का सहयोग मैंने अपने आलसी विचारों को दिया और हम कतार से बाहर निकल आये। कतार छोड़ने के मेरे विचार को और भी ताकत देने के लिये मैंने अरूणराव से कहा, ‘अरूणराव, मैंने ऐसा सुना है कि, सच्चे सद्गुरु उनकी इच्छा के अनुसार जब उचित समय आता है तब वे दर्शन देते ही है। यदि वास्तव में शक्ती होगी तो वे दर्शन देंगे ही। आज ही देख लेते हैं कि वास्तविकता क्या है?’ उसके बाद हम प्रदक्षिणा करके मुख्य-द्वार पर आ गये।
दो घंटो तक बरसात में भीगने के कारण हम पूरी तरह गीले थे। जब हम मुख्यद्वार पर नमस्कार करके पीछे मुडे़ तो मुझे एक सज्जन का चेहरा परिचित सा लगा। हजारो लोगों की भीड़ में कोई तो कुछ पहचाना सा लगा परन्तु ठी़क से याद नहीं आ रहा था। फिर भी साहस करके मैंने उनसे पूछा, ‘‘क्या भाई, आपका नाम सावंत है?’’ उन सज्जन ने उत्तर दिया, “हाँ, मैं सुधाकरसिंह सावंत, परन्तु आप कौन”’ मैंने कहा, ‘‘अरे, पंद्रह साल पहले आप मुझे कॉलेज में मिले थे। मैं शिवाजीराव ड़ांगे हूँ।’’ उन्होंने पूछा, “याद आया, परन्तु आप यहाँ कैसे?” मैंने कहा, “मेरे मित्र यहाँ पर गुरुपूर्णिमा के दर्शन के लिये लेकर आये हैं। दर्शन की कतार में इंतजार करते-करते हम तंग आ गये। अब दर्शन नहीं होंगे, इस निराशा के साथ घर वापस जा रहे हैं।” “थोड़ी देर ठ़हरो।” सावंत ने कहा। वे कहीं से एक थैली ले आये व हमसे हमारे भीगे हुये जूतों को उसमें रखने के लिये कहा। सावंत ने कहा, “आज आकर तुमने बहुत ही अच्छा किया है। अब इस दरवाजे से ऊपरी मंजिल पर जाओ।” उन्होंने हमें दर्शन-हॉल की ओर जाने का मार्ग दिखाया।
मन में विचार आया, पंद्रह वर्ष पहले थोडे समय के लिये मिले हुये सज्जन का अचानक मिलना, अचानक मेरे द्वारा उन्हें पहचान जाना, व उनके द्वारा मुझे पहचान लेना, सभी कुछ कल्पना से परे हैं। इन्हीं विचारों में डूबे हुये, पैर से लेकर सिर तक पूरी तरह भीगी अवस्था में ही हम हॉल में पहुँच गये। इसी स्थिती में मैं मंच की ओर देख रहा था कि तभी मंच पर सद्गुरु का आगमन हुआ। और मैं एकटक, भावविभोर होकर उन्हें देखता ही रहा। तभी आरती शुरु हो गयी....... मेरे भावविश्व में विचार गूँजा, यहीं तो है सद्गुरु की अनुभूती।
मैं केंद्र सरकार की महसूल सेवा में बिहार, मध्यप्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में अनेक वर्षों तक कार्यरत था, इसीलिये महाराष्ट्र से, मुंबई से मेरा कोई संपर्क नहीं था व मुझे बापू के बारे में बिना किसी जानकारी के, किसी से भी उनके बारे में सुने बगैर, अचानक ही मेरे परममित्र के माध्यम से, गुरुपूर्णिमा के दिन पर बुला लिया। आलसी, चंचल मन के विचारों के कारण दर्शन करने के प्रयत्न को अधूरा छोड़कर जाने वाले मुझको, सावंत के माध्यम से दर्शन व आरती के लिये रुकवा लिया, यह सबकुछ मेरे लिये अनाकलनीय था। यहीं तो है सद्गुरु की अनुभूति। साई ने कहा ही है -
माझा माणूस देशावर । असों का हजारों कोस दूर।
आणीन जैसे चिडीचे पोर । बांधून डोर पायास॥
(श्रीसाईसच्चरित्र : अध्याय-२८ : ओवी-१५)
(अर्थात : मेरा भक्त नज़दीक हो या हजारो कोस दूर हो, मैं उसे चिडियां के बच्चे की तरह पैर में डोर बाँध कर खींच ही लाऊँगा।)
“मैं सद्गुरु को कहाँ मिला था? यह याद करने का प्रयास करते-करते मैं मानव सेवा संघ के हॉल से बाहर आ गया। एक अभूतपूर्व अनुभूति हुयी थी। जिस तरह चिडिया के बच्चे के पैरों में ड़ोरी बाँधकर लाया जाता है उसी तरह सद्गुरु अनिरुद्ध बापू ने मुझे, अनेक वर्षों तक परराज्य में भ्रमण करने के बाद, वापस बुला लिया था। यादों के झूले में झोंके लेते-लेते मुझे अचानक याद आया। ‘अरे, ये अनिरुद्ध बापू तो मुझे सन् १९९० में परेल में डॉ.अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी के रूप में मिले थे। लगभग एक तप (१२ वर्ष) बाद’ अब याददाश्त के दरवाजे फटाफट खुलने लगे थे।
सन् १९९० में मैं परेल स्थित मुंबई पशुवैद्यकीय महाविद्यालय में पदव्युत्तर (post graduate) की शिक्षा प्राप्त कर रहा था। मैं एक किसान परिवार से था अत: मेरे माँ-बाप व अन्य परिवारीय सदस्य गांव में ही रहते थे। उस समय मेरी माँ को (जिन्हें हम ‘बाई’ कहते हैं) नाक से खून गिरने की तकलीफ थी। गाँव के डॉक्टरों द्वारा काफी इलाज किया गया परन्तु किसी भी प्रकार का फायदा नहीं हुआ। अंतत: मैंने बाई को उपचार के लिये मुंबई लाने का निश्चय किया। चूँकि मैं परेल के एक होस्टेल में रहता था अत: मैंने बाई व उनके साथ बड़ी बहन अक्का को मामा के यहाँ नायगाँव में लेकर आया। परेल में हम विद्यार्थियों को सस्ता व विश्वासू उपचार व मार्गदर्शन प्रदान करने वाले डॉ.जोशी का क्लिनिक था। वहाँ से नज़दीक ही डॉ.अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी का क्लिनिक था। मैंने उपचार के लिये बाई को उन्हें दिखाने का निश्चय किया।
डॉ.अनिरुद्ध जोशी ने विविध प्रकार की रक्त की जाँच इत्यादि करवाने को कहा। मुझे मेडिसिन, पॅथालोजी का आधा-अधूरा ज्ञान होने के कारण, मुझे ऐसा लगा कि ये सब जाँचे व्यर्थ व अपव्यय ही है। मेरी अल्प बुद्धि को लगा कि जब बीमारी नाक की है तो फिर ये सब अनावश्यक खर्च किस लिये? परन्तु फिर बेहे सभी जाँचों के हो जाने बाद मैंने सभी रिपोर्टस डॉ.अनिरुद्ध को दिखायी। उसके बाद उन्होंने बाई को, डॉ.किर्तने जो नाक, कान, गला, तज्ञ थे और जिनका क्लिनिक ऑपेरा हाऊस में था, उन्हें दिखाने को कहा। डॉ.अनिरुद्ध ने अपने धीर-गंभीर आश्वासक आवाज में कहा, “सब कुछ ठी़क हो जायेगा।’ डॉ.किर्तने ने ऑपरेशन करके नाक में से ‘गांठ़’ निकालने का निश्चय किया। ‘गांठ़’ शब्द का उस समय मतलब था ट्युमर और ट्युमर यह मॅकिंग्नंट हो सकता है, ऐसा विचार मेरे अल्प ज्ञान के फलस्वरूप मेरे मन में आया और मैं घबड़ा गया। दुसरे ही दिन डॉ.किर्तने ने ऑपरेशन किया व उस गांठ़ को पॅथॉलोजी परीक्षण के लिये भेजा व मुझे रिपोर्ट लाने के लिये कहा। यद्यपि मैंने लॅब से वह रिपोर्ट ले ली थी परन्तु उसे पढ़ने का, देखने का साहस मैं नहीं कर सका। परन्तु रिपोर्ट देखने के बाद डॉ.किर्तने ने समाधान व्यक्त किया। उसके बाद वापस आकर हमने सारी रिपोर्ट्स डॉ.अनिरुद्ध को दिखायी। उन्होंने आश्वासक शब्दों में कहा, ‘सबकुछ अच्छा है’ और मैं निडर हो गया। उसके बाद कभी भी बाई को नाक से रक्तस्त्राव की तकलीफ नहीं हुयी। अत्यावश्यक रक्त जाँचो को अनावश्यक समझकर संशय व्यक्त करना अनुचित था, यह मुझे बाद में पता चला। बाई को रक्तदाब व मधुमेह की बीमारी होने के कारण ये सभी जाँचे ऑपरेशन से पहले अत्यावश्यक होती ही है, यह भी मेरी समझ में आ गया। शायद इसी प्रभाव के कारण ही मैं लगभग एक तप (१२ वर्ष) तक दूर चला गया था।
सन् १९९० के बाद महाराष्ट्र लोकसेवा आयोग की ओर से महाराष्ट्र में प्रथ्म आने के बाद मेरी नियुक्ति मुंबई के बाहर उपजिला अधिकारी के पद पर हुयी। उसके बाद संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा में आय.आर.एस. के पद पर नियुक्ति होने के बाद मैं अनेक वर्षों तक महाराष्ट्र के बाहर रहा। उसके बाद जब मैं बदली होकर मुंबई में आया तो एक तप (१२ वर्षों) के बाद भी मुझे उनके बारे में कोई भी जानकारी न होते हुये भी सद्गुरु अनिरुद्ध ने कृपा करके गुरुपूर्णिमा के अवसर पर मुझे उनके बापू परिवार में शामिल कर लिया। इन सभी घटनाओं की याद करते-करते, सद्गुरु की लीला की अनुभूति लेते हुये, मुझे साईनाथ का उपदेश याद आने लगा,
तुम्ही कोणी कुठेही असा। भावे मजपुढे पसरिला पसा।
मी तुमचिया भावासरिसा । रातंदिसा उभाच।
माझा देह जरी इकडे । तुम्ही सातासमुद्रापलीकडे।
तुम्ही काहीही करा तिकडे। जाणीव मज तात्काळ॥
(श्रीसाईसच्चरित्र: अध्याय-१५:ओवी-६७ /६८)
सद्गुरु कृपा की अगाध लीलाओं को याद करते हुये, मैं मानव सेवा संघ के हॉल से बाहर निकला । रास्ते पर अभी भी भक्तीसागर उमड़ रहा था। मैं सद्गुरु की प्रेममय भक्ती की बरसात में पूरीतरह भीगे हुये मन के साथ, आनंद से ओतप्रोत मन की अवस्था में घर की ओर मार्ग पर चल पड़ा।
॥ हरि ॐ॥
डॉक्टर अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी, एमडी (मेडिसीन)
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Dr. Shirish Datar |
लेखक: डॉ. शिरीष दातार
* परिचय *
१९७८ में नायर मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस,
१९८२ में नायर मेडिकल कॉलेज से एमडी(पेडिएट्रिशियन),
१९८३ से जनरल प्रॅक्टिस.
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रुईया से नायर हॉस्पिटल, टोपीवाला मेडिकल कॉलेज - मेरा क्लासमेट, मेरा घनिष्ठ मित्र, मेरा सखा और आज अनिरुद्ध बापू, मेरे सदगुरु - मेरा भगवान।
मैंने मेरे इस चहिते मित्र की मित्रता और चहिते भगवान की भगवंतता दोनों बातों को भरपूर अनुभव किया है। आज मैं आपको इसकी मित्रता के किस्से बताऊंगा और इनमें ही उसकी छिपी हुई भगवंतता दिखाई देगी।
सन १९७३ के जून महीने में मैं इंटर सायन्स की पढाई के लिए रुईया कॉलेज में दाखिल हुआ। कॉलेज का पहला साल मैंने ठाणा कॉलेज (बेडेकर कॉलेज) से पास किया। बापू कॉलेज के पहले साल से ही रुईया में थे। मैं कॉलेज में नया था। कॉलेज का आय कार्ड मिला और मैं ग्रंथालय में गया। तब हमें आय कार्ड पर एक किताब घर ले जाने के लिए मिला करता था। इसीलिए मैं ग्रंथालय में गया था, क्योंकि मेरी आर्थिक स्थिति के अनुसार सभी टेक्स्टबुक्स खरीदना संभव नहीं था। ग्रंथालय के काऊंटर पर भीड थी। मैं वहीं पास में जाकर खडा हो गया। थोडे ही अंतर पर एक टबल था और उस टेबल के पास बापू बैठे हुए थे। तब वे मेरे लिए अपरिचित थे। मैंने जब उस लडके की ओर देखा तो पता चला कि वह मुझे इशारे से अपने पास बुला रहा है। चेहरा देखा तो ध्यान में आया कि यह लडका लेकचर्स के दौरान मेरे ही क्लास में था, अर्थात यह मेरा क्लासमेट है, इतना परिचय हुआ। फिर भी मन में डर सा था कि मैं इस कॉलेज में नया हूं और यह यहां पर पिछले एक साल से है; कहीं रैगिंग का इरादा तो नहीं? पर साहस कर मैं उसके टेबल तक गया। उसने मुझे शांति से गंभीर आवाज में पासवाली कुर्सी पर बैठने को कहा। वह स्वर ही आश्वासक था। मेरा डर निकल गया और तनाव रहित कुर्सी पर पैठ गया। हम पहली बार एक-दूसरे से बातें कर रहे थे। मगर वह मेरे बारे में सबकुछ ’जानता’ था। "तुम शिरीष दातार। डोंबिवली से आते हो, बराबर?" यही था उसका पहला वाक्य। फिर उसने अपना परिचय दिया। "मैं अनिरुद्ध धैर्यधर जोशा। शिवडी में रहता हूं। मेरे पिताजी डॉ. धैर्यधर हरिहरेश्वर जोशी। परेल विलेज में उनका क्लीनिक है।" नाम सुनकर ही मैं सकपकाया। इतने में उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, "आयकार्ड पर किताब लेनेवाले हो ना? मैं इसका कारण जानता हूं। मेरे पास सभी किताबें हैं। मुझे लायब्ररी से किताब ले जाने की जरुरत नहीं है। अगर तुम और भी एक किताब ले जाना चाहो तो मेरे आयकार्ड पर ले जाओ।" मैं अचम्भित हो गया कि मेरे इस क्लासमेट से अभी अभी परिचय हुआ (मेरे अनुसार) और यह खुद अपनी ओर से मेरी इतनी सहायता कर रहा है। किसी को विश्वास होगा? मगर यह घटना १०८% सच है। यह अनिरुद्ध, यह बापू ऐसा ही है।
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Aniruddha Bapu |
मई १९८३ में बापू और मैं, हम दोनों ने एम.डी. का अभ्यासक्रम पूरा किया। मैं नायर हॉस्पिटल में रजिस्ट्रार की पोस्ट पर था। बापू उन्हीं दिनों (मई १९८३) पोस्टिंग पूरी करके परेल में निजी प्रैक्टिस करने लगे थे। रविवार का दिन था। सुबह ११ बजे डोंबिवली से मेरे चाचा का फोन आया। उन दिनों डोंबिवली से ट्रंककॉल लगाना पडता था। मेरे पिताजी डोंबिवली में रहते थे, वृद्ध थे, तकरीबन ७५ साल के। पिछली रात को उनकी तबियत बिगड जाने के कारण उन्हें ठाकुर हॉस्पिटल में ऐडमिट कराया गया था। मैं तुरंत नायर हॉस्पिटल से रवाना हुआ। निकलने से पहले बापू के घर पर फोन करके बताया कि मैं डोंबिवली जा रहा हूं, और जाने का कारण भी बताया।
मैं डोंबिवली पहुंचा। हॉस्पिटल पहुंचकर पता चला कि पिताजी की तबियत अधिक बिगड जाने की वजह से उन्हें डॉक्टर ने मुम्बई ले जाने को कहा है औरे मेरे चाचा उन्हें लेकर नायर हॉस्पिटल ही गए हैं। मैं तुरंत वहां से लौट पडा। बहुत टेंशन था। अनिरुद्ध (बापू) को संदेश देना संभव नहीं था। मैं घंटे-डेड घंटे में नायर पहुंचा। हॉस्पिटल के अहाते में पहुंचते ही मुझे पता चला कि पिताजी को आय.सी.यू. में ऐडमिट किया गया है। मैं धीरज खो बैठा। मैं लिफ्ट से हॉस्पिटल की छठी मंजिल पर पहुंचा क्योंकि वहीं आय.सी.यू. था। मैं आय.सी.यू. की दिशा में दौड रहा था कि इतने में आय.सी.यू. का दरवाजा खुला और खुद बापू और डॉ. श्रीरंग गोखले बाहर निकले। बापू मेरे कंधे पकडकर बोले, "शिरिष, पिताजी की तबियत बहुत खराब थी, पर अब ट्रीटमेंट के बाद फरक पडा है। ही इज आऊट ऑफ डेंजर।"
यह सुनकर मैं खुद को रोक न सका और रोने लगा। मुझे शांत करके बापू मुझे आय.सी.यू. में ले गए। पिताजी से मिलकर मैं बाहर आ गया। बापू और डॉ. श्रीरंग अंदर ही थे। बाहर बापू का ड्राईवर खडा था। मुझे देखते ही आगे बढकर बोला, "साहब, आप अपने दोस्त जरा समझाईए।" मैंने पूछा "क्यों?" तब वो बोला, "डॉक्टर साहब ने कितनी रफ्तार से गाडी चलाई है? मैं उनके बगल में जान मुठ्ठी में लिए बैठा हुआ था। मैंने आज तक ऐसी ड्राईविंग नहीं देखी। शिवडी से नायर तक केवल ७-८ मिनटों में लाया आपके दोस्त ने।" मैं अचरज में पड गया। "हां समझाऊंगा" कहकर उसे संतुष्ट किया। इतने में बापू बाहर निकले। "पिताजी की तबीयत अब ठीक है, श्रीरंग संभाल लेगा। अब मैं घर जा रहा हूं।" ऐसा कहकर बापू चले गए। फिर डॉ. श्रीरंग ने सारी बात बताई। जब पिताजी को आय.सी.यू. में लाया गया तब वो ड्यूटी पर था। यह पेशंट मेरे पिताजी हैं और मैं हॉस्पिटल में नहीं हूं इस बात का पता चलते ही उसने बापू के घर पर फोन करके यह बात बताई। उस वक्त बापू घर पर ही थे। फोन रखने के बाद दसवें मिनट में बापू आय.सी.यू. में थे। मित्र एक मित्र के लिए दौडा। बापू की मित्रता रेखांकित हो गई। मगर बात यहीं खत्म नहीं होती। बापू की ट्रीटमेंट की वजह से मेरे पिताजी की जान बची। दो दिनों बाद मैं पिताजी को घर ले जा सका। मेरे पिताजी की तबीयत में सुधार देखकर डोंबिवली के डॉक्टर ठाकुर भी अचरज में पड गए। एक डॉक्टर के तौर पर बापू कैसे हैं यह भी रेखांकित हो गया।
६ सितम्बर १९८४, हमारी शादी का दिन। हम ने रजिस्टर्ड विवाह करने का निर्णय लिया था। इसके अनुसार एक महीना पहले नोटिस दी गई थी। ठाणे से रजिस्ट्रार खुद नेरल आनेवाले थे। हम ५ तारीक को उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा कि वे नहीं आ पाएंगे। अब क्या करें? यह सवाल खडा हो गया। हम अपने घर कर्जत पहुंचे। अनिरुद्ध (बापू) हम से पहले ही हमारे घर पहुंच चुका था। सारी बात सुन लेने पर वह बोला, "कोई चिन्ता मत करो।" मेरे ससुरजी ने भागदौड करके शादी वैदिक तरीके से कराने हेतु पंडितजी से बातचीत तय कर आए। ६ तारीक को हम सब शादी के लिए नेरल पहुंचे। बापू भी हमारे साथ थे ही। महुरत का समय नजदीक था पर पंडितजी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। ससुरजी ने फोन किया तो पता चला कि वे बीमार हैं और आ नहीं पाएंगे। सभी दुविधा में पड गए कि अब क्या करें? सभी रिश्तेदार आ चुके थे, पर अब विधी कैसे की जाए? बापू मेरे पास आकर बोले, "अरे शिरीष, चिन्ता क्यों करते हो? जोशी गुरुजी हैं ना! मैं सब विधियां, मंत्र जानता हूं।" बापू जोशी गुरुजी बन गए। अग्नि एवं देवताओं की साक्ष्य से बापू ने हमारी शादी कराई। मित्र के लिए बापू शादी करानेवाले गुरुजी (पंडितजी) बने।
उपरोक्त तीनों अनुभवों से साबित होता है बापू जरुरतमंद मित्रों के लिए नि:स्वार्थ भावना से सहायता का हाथ बढाते हैं, पूछे बगैर, अकारण। दिक्कत के समय शादी करानेवाला गुरुजी भी बनता है और मरीजों के लिए जीवनदाई डॉक्टर। इसीलिए यह बापू ‘बेस्टेस्ट’ मित्र तथा ‘बेस्टेस्ट’ डॉक्टर है।
‘अनिरुद्धा तेरा मैं कितना ऋणी हुआ’ यही सत्य है।